Wednesday, 13 January 2016

मानों शाम आज सुबह से कुछ पहले आ गया

मेरी दादी 
मानों शाम आज सुबह से कुछ पहले आ गया
बारिश की कुछ बूंदों से घना कुहरा सा छा गया











हवाएं मंद सी मुस्काती सरयू तट चली जाती है   
और फिर मुझे छूकर किसी की याद दिलाती है
बाग़ में अमरुद आज अकेला तना लिए खड़ा है  
सरपत के पीले कंटीले झुण्ड सब हमें देख रहे है
पानी के कुओं में आज क्यों अजब सा सूखा है

कौओं का बसेरा पुराने छप्पर के पास टिक गया
लगाकर आग अचानक चूल्हे में जैसे आ गया

पुराने पकवान होली के और दिवाली में नहीं है
पुराने स्वाद झूलों पर भी शब्दों में अटक गए है
चना मटर और नागपंचमी किस पोखरे में पड़े है
कहानियों को चलते-चलते जो कही थोड़े सुने है
आज विमर्श में मुख पर हल्की मुस्कान बिखेरे है
   
मैं शून्य तक देख कर जब वास्तविकता पर आया
यकीन नहीं हुआ फिर भी सब कुछ छोड़ आया

लगता है यह मिट्टी जैसे खिलौने जैसा किस्सा है
किसी खिलौने से सही यह मेरी दादी का रिश्ता है


-प्रभात 

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