Friday, 13 March 2015

मंजिल

कोई पतवार तुम्हे पहुंचा रही है मंजिल
क्यों काट रहे हो उसे, पहुंचकर मंजिल

उड़ रहे हो कहीं पर, जब है पास मंजिल
कभी तो दूर होगी, तुमसे तुम्हारी मंजिल

अभिमान पर भरोसा है जबसे है मंजिल
चौराहे पर ठहरी होगी, कभी तो मंजिल

खुशी हुयी हमें भी, मिली जबसे मंजिल
अहंकार ले गया तुमसे तुम्हारी मंजिल

सो रहे हो फिर भी संरक्षण दे रही मंजिल
जागो वरना अदृश्य हो जायेगी मंजिल

                                           
                   -"प्रभात" 

8 comments:

  1. दिल से लिखी गयी और दिल पर असर करने वाली रचना , बधाई तो लेनी ही होगी

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    1. भास्कर जी बहुत-बहुत शुक्रिया. मुझे प्रोत्साहित करती है आपकी प्रतिक्रिया..

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  2. खुशी हुयी हमें भी, मिली जबसे मंजिल
    अहंकार ले गया तुमसे तुम्हारी मंजिल
    बहुत सुंदर और सार्थक.

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    1. आपकी टिप्पणी से हमेशा मुझे कुछ नया लिखने को प्रेरित करती है...सधन्यवाद!

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  3. बहुत ही सार्थक रचना। अच्‍छा और गुणवत्‍ता युक्‍त लेखन कर रहे हैं।

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    1. धन्यवाद....आप पढ़ती रहती है और हौंसला बढ़ाती है इसका सदा मैं आभारी रहूँगा!

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  4. सार्थक रचना
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है

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