कोई पतवार तुम्हे पहुंचा रही है मंजिल
क्यों काट रहे हो उसे, पहुंचकर मंजिल
उड़ रहे हो कहीं पर, जब है पास मंजिल
कभी तो दूर होगी, तुमसे तुम्हारी मंजिल
अभिमान पर भरोसा है जबसे है मंजिल
चौराहे पर ठहरी होगी, कभी तो मंजिल
खुशी हुयी हमें भी, मिली जबसे मंजिल
अहंकार ले गया तुमसे तुम्हारी मंजिल
सो रहे हो फिर भी संरक्षण दे रही मंजिल
जागो वरना अदृश्य हो जायेगी मंजिल
-"प्रभात"
दिल से लिखी गयी और दिल पर असर करने वाली रचना , बधाई तो लेनी ही होगी
ReplyDeleteभास्कर जी बहुत-बहुत शुक्रिया. मुझे प्रोत्साहित करती है आपकी प्रतिक्रिया..
Deleteखुशी हुयी हमें भी, मिली जबसे मंजिल
ReplyDeleteअहंकार ले गया तुमसे तुम्हारी मंजिल
बहुत सुंदर और सार्थक.
आपकी टिप्पणी से हमेशा मुझे कुछ नया लिखने को प्रेरित करती है...सधन्यवाद!
Deleteबहुत ही सार्थक रचना। अच्छा और गुणवत्ता युक्त लेखन कर रहे हैं।
ReplyDeleteधन्यवाद....आप पढ़ती रहती है और हौंसला बढ़ाती है इसका सदा मैं आभारी रहूँगा!
Deleteसार्थक रचना
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है
शुक्रिया!
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