मानव
देख रहा डाली-डाली
( १)
मानव देख रहा डाली-डाली
नयी तनों और कोपलों से जो है खाली।
बदसूरत सी बनी वृक्ष की आभा
नीरस हुआ मन तो उठ चले नर-नारी।
दृश्य मनोहर ढूँढने को कर रहा है मन
चंपा और चमेली खिल रही है,
पर नहीं है वो सुगंध प्यारी ।
देख सखी, कहते है बसंत है इतना प्यारा
फिर ये पपीहे की कहाँ गयी बोली प्यारी ।
हर्षित होते मोर को ढूंढ रही राह-राह
सो गए
सारे लोग यहाँ
लगता है यहाँ सब खाली-खाली ।
मानव देख रहा डाली-डाली ।
(२)
आम के पेड़ दिख रहे सूखे पत्तों संग खाली
हरे भरे बिन बौर लगती है ठूठी-ठूठी।
उपवन में दिखती है सूखी पत्तों की क्यारी।
पंखुड़ियों की ओर भ्रमर चल पड़ा अदृश्य होकर
मानों असहज होकर छुपा रहा अपने तन न्यारी।
पलाश खड़े मात्र स्तम्भ बनकर
अनुभव करा रहे हमें अपनी सुकुमारी।
हे प्रियतम, मधु के छत्ते वाली मौसम का बसंत
है कहाँ
क्या मधुमक्खी पी कर सो गयी सारी मधु की
प्याली।
बन जाओ तुम भी साकी
दिखा दो मुझे प्यारी हरियाली।
मानव देख रहा डाली-डाली।
(३)
नभ की ओर देख रहा अचरज भरा मन
काले-काले मेघ ले चले सुन्दर ओसों की बौछारी।
बुलबुल गाती थी तराना
अदृश्य देख कर अब हो गयी हैरानी।
सुन्दर तितलियों का झुण्ड जा रही कहाँ
दूर तलक घास में छिप कर कुछ हैं कहने वाली।
प्रेयसी, मानों बसंत चला भी गया मान लो इनकी
वाली।
नदियों की कल कल की आवाज
और सुन्दर पक्षियों की वाणी।
मानों अनुभव करा रहे ये हुयी स्मर कथा पुरानी।
स्याह कलम तैयार है भरने को रंगीली डाली।
मानव देख रहा डाली-डाली।
-प्रभात
बहुत सुन्दर रचना.
ReplyDeleteनई पोस्ट : तनहा शाम है
शुक्रिया .......
Deleteबहुत खूब। बहुत ही सुंदर रचना। नई पोस्ट : मालदीव बचाओ
ReplyDeleteबहुत धन्यवाद!
Deletekya khoob...achha likhe hain...
ReplyDeleteसादर धन्यवाद!
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