मैंने जो लिखा था कुछ भी सही नहीं
मगर मैं हारा नहीं।
विश्वास मेरा मुझको जो बल देता कहीं
गलत को सही कराता वहीं
लड़खड़ा कर अगर मैं गिर जाता कहीं
बेसहारा होकर चल बसता वहीं
मुझमें जो विश्वास है हौंसले बढाता नहीं
मगर मैं हारा नहीं।
टूट कर शाखाओं से पत्ते गिर रहे कहीं
मैं भार ढोता कहीं
हो जाता अपराधमय मैं भयग्रस्त वहीं
छोड़ जाती मुझे आपदा में वहीं
फिर लिखने की कोशिश करता टूट जाता कहीं
मुझे मिलाता कोई नहीं
फिर भी अब तक किसी को कुछ बताया नहीं
मगर मैं हारा नहीं।
मैं निकल गया हूँ काटों के बीच से सही
रास्ते में रुका नहीं
चलकर छू लूँगा अपने मंजिल की दीवार कहीं
मैं रुकुंगा तब कहीं
हौंसले बढ़ाने वाले बढ़ाते रहे या कभी नहीं
मैं चलूँगा सही
आशा है जल्दी लिखूंगा सही पर अभी नहीं
मगर मैं हारा नहीं।
-“प्रभात”
बहुत सुंदर रचना.
ReplyDeleteनई पोस्ट : क्यों वादे करते हैं
धन्यवाद!
Deleteबहुत सुन्दर , बढ़ते रहें
ReplyDeleteआपकी शुभकामनाओं के लिए शुक्रिया!
Deleteझंझावात तो आते रहते हैं ... हार नहीं मानना ही जीवन है ...
ReplyDeleteसही लिखा आपने ....हार न मानना ही जीवन है...आभार!
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