Sunday, 5 January 2020

प्रेम-जन्मदिन


किसी ने कहा था कि तुम प्रेम पर कितना कुछ लिखते हो और भी तो कई विषय हैं जिस पर लिखा करो। मैंने और विषय पर लिखना शुरू किया और फिर मुझे देशद्रोही, गद्दार और हिन्दू विरोधी बता दिया गया। यहां तक कि उन्मादी भी। इतना ही नहीं हर रोज मैसेज पर गालियों की फौज आती है और फिर अपना सारा कीचड़ वहां उछालकर निकल जाती है। शायद यही है कलम की ताकत।
यहां तक कि प्रेम पर भी लिखने से मना कर देते हैं लोग कुछ लोग तो प्रेम पर लिखने को पागल, सनकी, डिप्रेस्ड तक बता गए। खैर प्रभात काफी है इन सबको समझने के लिए।

आज फिर से प्रेम का तड़का लगाने के लिए तैयार हूँ ये नफरतों के सियासी जंग में शामिल लोगों के लिए हैं।

तुम्हें प्रेम दिख जाए तो सड़कों पर खून की जगह गुलाब के फूल दिखने लगेंगे
और तुम्हें गुलाब दिख जायें तो तुम्हें अपनी महबूबा के पास जाने का मन करेगा
सड़कों पर बिना कपड़े ठंड में कंपकंपाती औरत को घर दिलाने का मन करेगा
बेबस और लाचार पड़े हर मकान में मिट्टी के दिए जलाएंगे
चिनगारियां केवल चूल्हें में लगेंगी, दिलों के दरवाजों पर आग की आहट नहीं होगी
.......
तुम्हें नफरत से बात करनी है तो मुझसे करनी होगी
क्योंकि मैं कह रहा हूँ और तुम सुन रही हो
ठीक उसी तरह जैसे मैं सुनता रहता हूँ

एक अनजान सी जगह थी जब मैं नहीं जानता था तुम्हें
और फिर भी तुमने कभी महसूस नहीं होने दिया
कि हम कहीं से अनजान हैं

.........


तो फिर परत दर परत हम खुलते गए, किताबें खुलती गयीं बंद होती गयीं
और फिर बंद हो गईं किताबें और फिर खुली नहीं
अब तक नहीं
ऐसा लगता है कि अरसा हो गया तुम्हें पढ़े
ऐसा लगता है कि अब खोलूं भी तो क्या पढूंगा
शायद किताबों को सुकून मिल रहा होगा ठीक तुम्हारी तरह
और फिर इसी तरह मैं सोचकर उसे नहीं खोल पाता
लेकिन ठंडी में किताबों पर गिरने लगते हैं ओस
गर्मी में पसीने की बूंदें
और फिर बरसात भी आता है
जब सब कुछ गीला सा हो जाता है
नहीं देखा जाता कि वो पन्ने किन उलझनों में बेबस से हैं
कैसे वो आंखों से ओझल हैं
लेकिन मैं पहुंचता हूँ उन पन्नों के करीब
ठीक तुम्हारी तरह और फिर

बंद कर देता हूँ क्योंकि काफी कुछ सहेजकर रखना है
तब तक जब तक वो सभी के दिल ओ दिमाग में पहुंच न जाए
जरूरी ये है कि तुम मुझे नहीं अपने आपको चाहने लग जाओ
और फिर समझ लेना कि मैं और तुम नहीं केवल 'हम' हैं
-प्रभात

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