हम नन्हों के सपनों में, आग कभी लग जाती है
जैसे खेतों में चिंगारी पूरे समुदाय को ले जाती
है
हर हाथों में हौसले से अगर हिम्मत दी जाती है
तो बरामदे में लगे पूरे घोसले तोड़ दी जाती है
बालक-बालक जब दौड़ रहा रेल पटरियों के बीच में
माताएं-बहने मांग रही है, दो जून की रोटी भीख
में
कर रही है गुलामी औरों की, बालक बेच दी कोख
में
ठुकरा-ठुकरा दी जाती जब अधिकारों से क्रीड़ा
द्युत में
ऐसे जिन्दगी के चलने में रुकावट एक दिन आ जाती
है
जैसे मैखानें में हर दिन जाने से सांस कभी रुक
जाती है
घर का छप्पर अगर कभी लगता तो कूड़े के एक ढेर
में
कब तब बेघर हो न जाए, चिन्ता है पड़ा सरकारी क्रेन
में
सारी देह तपन में रंगी नन्हा बालक पड़ा किसी
ट्रेन में
दौड़ रहे है बचा रहे है जीवन, आतंक से और इस आग
में
ऐसे नाम होते आँखों में हिंसा एक दिन जब देखी जाती
है
इन कोमल से हाथों में हिंसक हथियारों की बू आ
जाती है
देख रहे है संसद की गतिविधियाँ लगी हुयी है, जो
खाने में
उजड़ रहा है परिवार गरीब का रोजाना नए क़ानून आ
जाने में
नहीं हो रहा सुधार तंत्र का, पुलिस ही लगी है
देश लुटाने में
हत्या, रेप, डकैती करवाती और राजनीति है पीछे
भड़काने में
मजहब, भाषा, जाति के नाम पर हत्या अब हो जाती
है
फिर से हम नन्हों का जीवन अंधकारमय देखी जाती है
-प्रभात
Sundar rachna.
ReplyDeleteसादर धन्यवाद
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