Thursday 22 January 2015

गाँव अपने जब भी जाऊं।

मैं पथिक बनकर रहा,
गाँव अपने जब भी जाऊं 
निहारता हुआ खेतों की ओर,
दूर तलक पहुँच जाऊं
बचपन की यादों में,
निहारते हुये खो जाऊं
ट्रेन की खिड़की खुली हो जब,
आसमां तक घूम आऊं
सब कुछ बदलते देख मैं,
घर का लालटेन भूल न पाऊं
पहुंचकर घर अजीब लगता है,
फूस के छप्पर देख न पाऊं
घर के लोगों को देखकर,
बूढ़े जवान में फर्क न कर पाऊं
पीले सरसों और मटर के खेत में,
जाकर फिर छिप जाऊं
गन्ने की खेतो को देखकर लगे,
कभी गुड़ के लड्डू खा जाऊं
आगे चने के तने दिखे,
अकेले अब तोड़ न पाऊं
तालाब दिखी पटी हुयी मगर,
लगा मिट्टी के खिलौने बना जाऊं
सवाल बचपन और समय का है,
थोड़ा मुसकराऊं मगर हल ढूंढ न पाऊँ  
                                   -"प्रभात"   

8 comments:

  1. पहुंचकर घर अजीब लगता है,
    फूस के छप्पर देख न पाऊं।
    ......सीधे ह्रदय की बात कह दी आपने कविता के भाव मन को छूते हैं।

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    1. जी बहुत-बहुत धन्यवाद...आपने ह्रदय से अपने मन की बात रखी..आपका आभारी हूँ!

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  2. कल 24/जनवरी/2015 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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    1. मैं आपका तहे दिल से आभारी हूँ!

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