क्या मन था आसमान में
हौसले सिमट रहे थे अब
तुम आते तो हो पर लगता है
करवटें यादों में काफी है।
ये धुंध छटा कोहरे का पर मन में उदासी है।
रात दिखी अँधेरे में, सुबह को खो जाती है।।
धूप दिखाई तुमने मेरे आँगन में
बगिया महकायी मेरे ख्वाबों की
कितने फूल सजाये अब
हवा सवाँरे मेरे जुल्फों को
बस रंगीन हवाएं काफी हैं।
ये धुंध छटा कोहरे का, पर मन में उदासी है
रात दिखी अँधेरे में, सुबह को खो जाती है।।
पर्वत तक जाकर लौट आता
सफेद बर्फ से घिर जाता में
अपनी बाहों को फैलाता
मेघों को पास बुलाता अब
लगता है सर्द रातें ही काफी हैं।
ये धुंध छटा कोहरे का, पर मन में उदासी है।
रात दिखी अँधेरे में, सुबह को खो जाती है।।
बेहिसाब रहा ये कोहरे की कहानी
किसी ने कही और सुनी मैंने
बंद थी आँखे मैं था अनुभवहीन
चाहा था कुछ पर अधूरा है अब
ऐसे ही ये वर्ष बिताना काफी है।
ये धुंध छटा कोहरे का, पर मन में उदासी है।
रात दिखी अँधेरे में, सुबह को खो जाती है।।
-“प्रभात”
शुक्रिया सर!
ReplyDeleteखूबसूरत ख्याल ...
ReplyDeleteआभार आपका!
Deleteक्या मन था आसमान में
ReplyDeleteउड़ने का और उड़ाने का
.......................खूबसूरत
Very Nice Poem
ReplyDeleteKeep it up!
"मायूसी को तू फ़ौरन भेज''
जब तूने खुद को उत्तम माना है
ताना था मन में जो भरा पड़ा
जो निकला बनके बहाना है
नहीं निकल पाए आगे तो
न पीछे पड़ा जमाना है
हार गए हो आज अगर तुम
तो कल जीत तुम्हे ही जाना है
उठो खड़े हो जाओ फिर से
जोश जगाओ नई हिम्मत से
सुबह भई जब शाम ढली
पतझड़ भई तो सुमन खिली
फिर कैसी मायूसी छायी है
अभी मात्र तो जीत हार की
पहली हुई लड़ाई है
जिस मायूसी को तूने अपनाया है
उसी धूर्त ने तुझको धुल बनाया है
तू धुल बना क्यों यहाँ पड़ा
क्यों इन काटों से उलझा जकड़ा
तू ही तो चन्दन बन सकता है
माटी से सोना चुन सकता है
अब मायूसी को तू फ़ौरन भेज
फिर नाप सके तो नाप तेज
विजय पताका तेरी होगी
आँखे क्यों है सांद्रण भीगी भीगी
लक्ष्य की उत्तम कोटि की
राह बनी है अभी अभी अभी
तू वो शीतल शिथिल जल का
बना पड़ा क्यों ध्योतक है
आगे बढ़ बस तू आगे
अगणित खड़े अवरोधक है
(पवन पराशर )
आभार आपका ....सुन्दर पंक्तियाँ प्रेरणादायक!
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