जीवन
के सत्य की ओर..............(समसामयिक भाग-१)
मैं कोई साधु-संयासी,
दर्शनशास्त्री नहीं हूं फिर भी मन में जगे भाव को यहाँ शब्दों में कहने की कोशिश
कर रहा हूँ. मैं न तो सगुण हूँ न ही निर्गुण परन्तु एक मनुष्य परिवार के होने के
नाते कुछ मन के भाव को इस लेख के माध्यम से आप तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूँ। चिन्तन करना हर मनुष्य का काम है। इसलिए चिन्तन करना और उसी के
माध्यम से अपने जीवन के पलों का एक निश्चित समय में पुर्नविलोकन करने का काम मैं
भी करता रहता हूँ।
यह संसार एक घर की
तरह है, और घर तो अनेकों है जिसे हमने बनाया। बस अंतर इतना है घर हमने बनाया और संसार किसी और ने बनाया, जो
हमारे समझ से परे है।
देवी-देवता शब्द हमने बनाया है।
सत्य को पता करने की जिन-जिन लोगों ने कोशिश की वे इसकी परिधि में अंततः आ ही गए।
मनुष्य जब पृथ्वी पर
आता है तो जाने, अनजाने दो तरह से आ जाता है। यह जाने, अनजाने का मतलब एक दुर्घटनावश। और दूसरा जान बुझकर। दुर्घटनावश आना मनुष्य का कितना जरुरी है, ये हम सभी
जानते है दुर्घटनाएं होना भी शुभ और अशुभ दोनों का संकेत है। बस अंतर उस बात का हो जाता है, कि
हम उसे किस समय और किस सोंच से आत्मसात कर रहे हैं। जानकर पृथ्वी पर लाने का काम मनुष्य ही कर सकता है
बजाय किसी प्राकृतिक इच्छा के, जो की दुर्घटनावश हो जाया करती है। इतना तो विज्ञान ने हमें समझा ही
दिया है, कि किस बात का प्रयोग कैसे करना हमारे हित में है।
मनुष्य शुरू में
भगवान के समीप अपने आपको पाता है, और समय बीतते जाने पर अर्थात खुद की बुद्धि आ
जाने पर वह भगवान के समीप होने की बजाय अपने आपको विज्ञान के समीप लाता है। जैसे-जैसे और समय बीतता है अर्थात
अगर हम मनुष्य की आयु की बात करे तो जब वृद्धावस्था की बात करें या फिर इस संपूर्ण पृथ्वी की आयु की बात करे,
ऐसे समय हम फिर एक बार किसी प्राकृतिक शक्ति से बंधे हुए पाते है। शायद ऐसी घटनाओं से हर कोई वाकिफ
हो जाता है। यह एक जीवन का
चक्र है जो इसी तरह से प्रकृति और विज्ञान के इर्द-गिर्द घूमते हुए दिखता है।
कितने
साधु-सन्यासियों ने आकर बहुत कुछ हमें बता डाला। कितनों ने तो केवल हमें ठगा। और बहुत सारों ने व्यक्तिवाद और मनुष्यवाद से ऊपर उठकर
अपने आपको भगवान का अवतार माना।
ऐसा मानने के लिए हमें विवश किया गया।
ऐसा हमारे बुद्धि को और इसे विज्ञान से दूर रखकर ही संभव बनाया गया। जहाँ बुद्धि चली भी तो केवल उन
भगवान के अवतार की। हम तो बस
अंधाधुंध अनुसरण करते चले गए।
हम जब भी इस तरह की
बातें करते है, तो हर कोई पाठक सबसे पहले लेखक के सोंच के प्रकार को महत्व देने
लगता है न की उसके लेख को। और कुछ
पाठक अपने विचार को उस दिशा में मोड़ लेते है जहाँ पर उसका और लेखक का विचार मिलता
हुआ नजर आता है. कितना सही हैं न।
ऐसा तब होता है जब कभी दो प्रबल विचारों की टकराहट होती है। परिणाम विरोध के रूप में आता है ........और लेखक
को सम्मान उसके अंतिम संस्कार के बाद मिल पाता है। जब वह इस प्रकार के मोह माया के बंधन से दूर चला जाता
है।
भौतिक और सांसारिक
बंधन जितना व्यापक है, उतना रहस्यमय भी।
जिसे समझ पाना उतना ही कठिन है, जैसे दूर से पानी और शराब में फर्क न कर पाने की
बात। जब तक समीप न जाएं तब तक
पता नहीं चल पाता। अच्छी तरीके
से पता लगाना हो तो उसे सूंघना या चखना पड़ेगा। चखना तो हर किसी के बस की बात नहीं, जब तक उसे पता न चले यह पानी
और शराब के अतिरिक्त कुछ और नहीं हो सकता। मेरा कहने का आशय यह है बहुत चिन्तन और मनन के बाद भी हमें जीवन
का सत्य के बारे में कुछ भाग का ही पता चल पाता है।
इस सामाजिक और विचित्र
प्राणी (मनुष्य) का जीवन बहुत ही विचित्र है। पृथ्वी पर आता है और एक समय के बाद चला जाता है। किसी-किसी का जीवन खुशी से भरा
होता है किसी का दुःख से भरा और बहुत सारे लोगों का इन दोनों से नाता होता है। हालांकि ऐसा मानना तब संभव हो पाता
है जब हम पूरे जीवन का विश्लेषण करें न कि वह स्वयं, जिसके साथ यह सब होता है। सबके कर्म उसके व्यवहार से तय होता
है। यह वह नहीं समाज खुद करने
लगता है। उसके कर्म अच्छे और
बुरा दोनों हो सकते है। यह वह
स्वयं भी करता है और समाज भी। जैसे-जैसे
सोंच व्यापक होती हैं बुरी सोंच अच्छी बनने लगती है और अच्छी सोंच और भी बुरी। यह सब बस सोंचने का नजरिया होता है। अच्छा और बुरा, यह सब तय हम कुछ
मानदंडों पर करते हैं। यह सब
सामाजिक नीतिशास्त्र और व्यक्तिगत नीतिशास्त्र दोनों के अनुसार होता है। मुझे पता है आप कुछ बातों से मुझसे
और मेरी सोंच से आश्वस्त नहीं होंगे, परन्तु कुछ घटनाओं से हो सकते है। जैसे- मैंने कुछ ऐसा काम किया जिसे
समाज में गलत नहीं, परन्तु परिवार में गलत माना जाता है। तो आप खुद ब खुद किसी सही-गलत की तलाश में भटकते हुए
जरुर पाएंगे और अंततः आप जनमत की ओर जाने की कोशिश करेंगे।
इस संसार में आने के
बाद न जाने कितनी गलतियों से हम सीखते और सिखाते है। जिसका अनुमान लग जाए तो हमारी गलतियां, सही काम से
कहीं ज्यादा होंगी। इसीलिए यह
व्यवस्था भी है, कि बहुत सारी सोंच को एक समय के बाद हम दिमाग की खुली खिड़की के
माध्यम से छोड़ जाते है। यह
सत्य है, यहाँ सब कुछ संभव है।
बसर्ते हमें अपने आपको सही दिशा में ले जाने का प्रयास करते रहना चाहिए। फल हमें प्रयास से ही मिलता है, न
कि कहीं पर विश्राम करने से।
इस जिंदगी को जीने का मजा तभी पाया जा सकता है, जब हम गतिमान जिन्दगी की घड़ी के
साथ गतिमान रहे।
किसी भी प्रकार के
सहयोग के लिए मनुष्य से न सहयोग लेकर मनुष्य के विचार से लेना ज्यादा सही होता है। इस बात से सहमत, आप उस सन्दर्भ में
होंगे जब हमें किसी महापुरुष के विचारों का सहयोग लेना हो, जब वे खुद इस संसार से दूर चले गए हो। परन्तु ऐसा नहीं है, ये बात हर जगह
लागू की जा सकती है। केवल विचारों
की शक्ति का प्रयोग करके। यह
शक्ति अनंत है, जिसे समझना इतना आसान नहीं है। अगर आप ऐसा करेंगे तो आप अपने बुद्धि का भरपूर प्रयोग कर पाने में
सक्षम होंगे, जो किसी मनुष्य की उपस्थिति में बिलकुल ही संभव नहीं है।
"इस भाग में “जीवन के सत्य
की ओर ........” में बस इतना ही। आगे आपके खुद के विचार मेरे लेख के
सम्बन्ध में सादर आमंत्रित है। अगले लेख में, मैं समसामयिक भाग २ के लेख में आपके
टिप्पणी अनुसार कुछ बेहतर लिखने की कोशिश करूँगा।" साभार,
"-प्रभात"
भगवान ,ईश्वर ,अल्लाह ,गॉड ये सभी शब्द इन्सान ने ही बनाया है उस अज्ञात प्राकृतिक शक्ति के लिए जिसे हम इस सृष्टि का आधार मानते हैं | उसका रूप ,रंग आकार ,प्रकृति के बारे में किसी को कुछ पता नहीं है | अपनी अपनी कल्पना के आधार पर किसी ने उसे सगुण माना है तो किसी ने निर्गुण } किन्तु एक बात निश्चित है की यह एक अलौकिक शक्ति है और यदि शक्ति है तो निर्गुण है क्योकि शक्ति का कोई आकार ,रंग ,रूप नहीं होता |इसीलिए निर्गुण धारना सच के अधिक नजदीक है |
ReplyDeleteसही ही कहा आपने .........निर्गुण धारणा कहीं न कहीं सच के अधिक नजदीक है!! शुक्रिया आपके विचार के लिए!!!
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