कभी पायल पहनती तो कभी होठो को रंगती
और कभी दुपट्टा तो कभी साड़ी में दिखती ।
मैं नर और न ही नारी हूँ
बस मैं यहाँ बेचारी हूँ ।
सोचती हूँ मैं प्यार में डूबूं
मीरा बनूँ या कृष्ण
उनको देखूं या न देखूं,
पर मुझको कैसे प्रेम दिखाते है वे
थोड़ा शर्माती कुछ कहने को होती ।
पर वे देखते है ऐसे जैसे,
मैं लाचारी हूँ, हाँ हूँ पर धीरज न खोती
बस अलग पहचान संजोती ।
खूंटी में बैग टांगती और सिक्को को गिनती
मैं रेलों के डिब्बे में घुसती और गालियाँ देती ।
मैं खुद भिखारी हूँ
मैं समाज की मैली दुखवारी हूँ ।
चलना मेरा पहचान है ताली दूसरी
मैं अच्छी लगती हूँ हाय कितनी
बहुत समझती हूँ ।
आजाद हुआ था हिन्दुस्तान जब
तब कहाँ थी, पहचान बनाने में ही तो
जो अब कानूनी दस्तावेज़ में लिखा हैं
नया लिंग है मेरा अभी
मैं अभी जान पाई हूँ ।
मैं जानती हूँ केवल लिखना हो मैं खुद ही लिख लेती
सम्मान चाहिए मुझको अपने अस्तित्व का
यह जानते हुए कि औरत/मर्द का भेद ही यही होती
मैं छुपती हूँ या चुप रहती हूँ ।
पर यहाँ बेचारी-बेचारी,
मैं तिकोनी आँखों में देखी जाती हूँ... ।
-“प्रभात”
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ReplyDeleteआपकी इस रचना का लिंक दिनांकः 29 . 8 . 2014 दिन शुक्रवार को I.A.S.I.H पोस्ट्स न्यूज़ पर दिया गया है , कृपया पधारें धन्यवाद !
बहुत आभार!
Deleteमर्मस्पर्शी भाव .....
ReplyDeleteशुक्रिया पढ़ने के लिए!
Deleteदयनीय स्थिति वर्णन करती रचना !
ReplyDeleteटिप्पणी के लिए शुक्रिया!
Deletebhaawpurn sunder prastuti..
ReplyDeleteशुक्रिया!
Deleteबढ़ियाँ जज़्बात
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