Friday, 4 July 2014

पता न चल पाया अब तक राज।


पत्ते-पत्ते हिल रहे नहीं, मौसम वैसे ही बरकरार
आँखे पलकों से ढकी हुयी, कर रही बारिश का इन्तजार।

कि ढंकने को तो ढंक ले ये, चाँद तारो के साथ
 आवाज हुयी थी बादल की तब, जब हुयी थी पिछली बरसात।

आँधियों से मौसम का, हो रहा बुरा हाल
आज तपती गर्मी ने, किया कठिन मेरा कार्य।

फसलों के पकने के मौसम में, होता है आँधियों का वार
कभी आम की टहनियां, टूटती है सिलसिलेवार।

गीली धरती हो रही थी, जब नहीं था कुछ काम
धान की खेती सूखी थी, जब होती थी कुछ बौछार।

खरबूज पक कर फूट रहे थे, बालू में कभी साथ
कभी बाढ़ ने लुटा दिया था, सबको तरंगों के साथ।

आज तपा दी धरती को इसने, मिटने लगी है अब आस
कैसे मौसम चल रहा, पता चल पाया अब तक राज।
                                - "प्रभात" 
      

17 comments:

  1. फसलों के पकने के मौसम में, होता है आँधियों का वार
    कभी आम की टहनियां, टूटती है सिलसिलेवार।

    Bahut Sunder

    ReplyDelete
  2. बहुत ही बढ़िया


    सादर

    ReplyDelete
  3. सुंदर प्रस्तुति

    ReplyDelete
  4. कल 06/जुलाई /2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

    ReplyDelete
  5. मौसम अब पहले से कहीं अटपटे बदलते हैं, वाकई पता नहीं चल पाता है अब! अच्छी अभिव्यक्ति है!

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद मधुरेश जी! अच्छा लगा आप यहाँ पधारे।

      Delete
  6. शुक्रिया अनुषा जी!

    ReplyDelete
  7. सादर आभार! धन्यवाद !

    ReplyDelete
  8. आज तपा दी धरती को इसने, मिटने लगी है अब आस
    कैसे मौसम चल रहा, पता न चल पाया अब तक राज..
    कुछ ही दिनों की बात है ... प्यास बुझने वाली है धरती की ... कब तक रूठे रहेंगे मेघ ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. सही कहा है आपने.........धन्यवाद !

      Delete

अगर आपको मेरा यह लेख/रचना पसंद आया हो तो कृपया आप यहाँ टिप्पणी स्वरुप अपनी बात हम तक जरुर पहुंचाए. आपके पास कोई सुझाव हो तो उसका भी स्वागत है. आपका सदा आभारी रहूँगा!