पत्ते-पत्ते
हिल रहे नहीं, मौसम वैसे ही बरकरार
आँखे पलकों से
ढकी हुयी, कर रही बारिश का इन्तजार।
कि ढंकने को तो ढंक ले ये, चाँद तारो के साथ
आवाज हुयी थी बादल की तब, जब हुयी थी पिछली बरसात।
आवाज हुयी थी बादल की तब, जब हुयी थी पिछली बरसात।
आँधियों से मौसम का, हो रहा बुरा हाल
आज तपती गर्मी ने, किया कठिन मेरा कार्य।
फसलों के पकने के मौसम में, होता है आँधियों का वार
कभी आम की टहनियां, टूटती है सिलसिलेवार।
गीली धरती हो रही थी, जब नहीं था कुछ काम
धान की खेती सूखी थी, जब होती थी कुछ बौछार।
खरबूज पक कर फूट रहे थे, बालू में कभी साथ
कभी बाढ़ ने लुटा दिया था, सबको तरंगों के साथ।
आज तपा दी धरती को इसने, मिटने लगी है अब आस
कैसे मौसम चल रहा, पता न चल पाया अब तक राज।
- "प्रभात"
फसलों के पकने के मौसम में, होता है आँधियों का वार
ReplyDeleteकभी आम की टहनियां, टूटती है सिलसिलेवार।
Bahut Sunder
सादर आभार!
Deleteसादर आभार!
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
सादर आभार!
Deleteसुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteसादर आभार!
Deleteकल 06/जुलाई /2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
सादर आभार!
Deleteमौसम अब पहले से कहीं अटपटे बदलते हैं, वाकई पता नहीं चल पाता है अब! अच्छी अभिव्यक्ति है!
ReplyDeleteधन्यवाद मधुरेश जी! अच्छा लगा आप यहाँ पधारे।
Deleteशुक्रिया अनुषा जी!
ReplyDeleteसादर आभार! धन्यवाद !
ReplyDeleteआज तपा दी धरती को इसने, मिटने लगी है अब आस
ReplyDeleteकैसे मौसम चल रहा, पता न चल पाया अब तक राज..
कुछ ही दिनों की बात है ... प्यास बुझने वाली है धरती की ... कब तक रूठे रहेंगे मेघ ...
सही कहा है आपने.........धन्यवाद !
DeleteSo good.
ReplyDeletethanks sir!
Delete