Saturday, 21 November 2015

डायरी से ...

छोड़ कर घर अपना प्रेम का धन अपना किसी दृष्ट को तलाशती है

निरोग का जिस्म अपना नीर का प्रभाव भी सूखे नयनों को डुबाती है

प्रेम की करुण छाया में तो दशरथ सिधार गए, रामचन्द्र बनबास गए

समझ आया क्यों मंजिल की जुस्तजू में नयन भींगते-भाते चले गए


-प्रभात 

2 comments:

  1. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....

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