न जाने क्यों उससे प्यार कभी नहीं हुआ उतना
जितना कि उसके नाम से।
नाम का पास से बार-बार गुजरना
बार बार खोना और
बार बार नाम का उतना ही प्रभाव होना।
खो देने का अब भी उतना ही डर
जितना कि पहली बार था।
समुद्र की लहरों सी बार बार उसके बालों का सामने आना
उसकी हंसी में उसी प्रकार खो जाना जैसे पानी में खुद को उतारकर उसमें भींग
जाना और फिर उसमें डूब जाना।
किसी प्रतिध्वनि का इस तरह सुनाई देना कि
सुनकर उसी के साथ लौट जाना बहुत दूर
शायद इतना दूर कि लौटकर आने में
उतने ही दिन लग जाएं जितने कि
पीले गुलाबी फूलों का बरसात के मौसम में फिर आना।
बारिश यानी कि शिमला, मंसूरी और कोलकाता की नहीं
पहचान है तो इसकी बस
उसके भींगते हाथों को पकड़ कर दूर तक जाने की
और फिर लौट कर आते वक्त उसका मुझमें
और मेरा उसमें समर्पण इस कदर कि फिर
छूट कर न जा सकें वो हाथ की अंगुलियां और
फिर चली जाएं तो फिर पकड़ ही ना सकें कभी
ठीक वैसे जैसे समय का निकल जाना।
लेकिन उसको याद करके इस समय को भी छोड़ जाना
और फिर इस समय को छोड़ कर फिर वहीं डूब जाना
यानी हर बार वहीं वहीं वहीं.....
यही तो प्यार है शायद!!!
-प्रभात
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