Wednesday 16 January 2019

कुछ बोलो तो भी दिक्कत


तुम्हारे पास मैं बैठा हूँ, फासले बहुत हैं मगर
कुछ बोलो न तो दिक्कत, कुछ बोलो तो भी दिक्कत
अजीब सी चाहत है, बहुत दूर जा रहा ये डगर
कुछ दूर जाकर भी दिक्कत, वहीं बैठकर भी दिक्कत
खामोशियाँ खुलकर सामने आ भी जाएं अगर
कुछ तुम्हारी नजर में दिक्कत, कुछ मेरी वजह से दिक्कत
प्रभात


तुम बाप कहलाने के लायक नहीं हो


तुम बाप कहलाने के लायक नहीं हो
बेटियों का सरेआम कत्ल करवाने वाले
और कल्चर का नाम लेकर उसे प्रताड़ित करने वाले
तुम बाप कहलाने के लायक नहीं हो

तुम्हें शर्म आती है, बेटी का मर्जी से किसी के साथ रहने पर
तुम्हें नफरत है उससे, उसको कहीं खुलेआम घूम लेने से
उसे हर वक़्त कहीं पर किसी के सामने बेइज्जत करने वाले
तुम बाप कहलाने के लायक नहीं हो
तुमने जिदंगी दी है इसलिए हर वक़्त बात मानेगी रोयेगी
हर वक़्त तुम्हारे लिए अपनी जिंदगी को दांव लगाती है
उसकी मनमर्जी के खिलाफ जाकर उसे बंधन में बंधवाने वाले
लड़की है इसलिए उस पर दिन रात ताला लगाने वाले
तुम बाप कहलाने के लायक नहीं हो
तुम उसके हर सवालों का जवाब के बदले उससे
लड़की होने की वजह बता कर टाल देते हो
घुंट-घुंट के मरती है, जब तुम उससे उसका हक छीन लेते हो
उसकी खुशी छीन कर खुद की खुशी देखने वाले
तुम बाप कहलाने के लायक नहीं हो
प्रभात
तस्वीर: गूगल साभार


तस्वीरें- दो फोटो और कहानी पूरी किताब की


तस्वीरें-
दो फोटो और कहानी पूरी किताब की।

मंदिर के ठीक सामने खड़ा हुआ बुद्धू और उसके उस जमाने के दो मित्र जब साथ थे। हर वक़्त अपने आप में वह इतिहास लिख रहा था। बुद्धू के भोलेपन और उसकी नादानियों का। उसके सस्ते सवालों का और उसकी तीखी बहसों का। इस बुद्धू के टीके पर एक निशान नैसर्गिक है ये उसे भी नहीं पता था, किसी ने बस यूं ही बता दिया था। उसके भोलेपन और उसकी सुंदरता का बखान करने से हर आदमी बेचारा ही समझेगा लेकिन उसके लिए यह सब झूठ ही था क्योंकि वह भोला नहीं एक ऐसा झोल का झोला था जिससे कोई और क्या उबरता वह खुद नहीं उबर सकता था। इस तस्वीर ने क्या कहा एक सवाल बन सकता है लेकिन उन सवालों का जवाब मैं भी नहीं दे सकता। यह बुद्धू से ही पूछिएगा और तब के बुद्धू से तो वह और अच्छा जवाब देगा। उसकी परछाई से जलने वाली अप्सरा और उसकी बातों पर कड़वा जहर उड़ेलने वाली प्रियतमा से क्या ही पूछिएगा!

उसके माथे की सिकन और उसके हड्डियों की कमजोरी या फिर यूँ कहें उसकी बेनूर होने की पहेली सब कुछ तो वही है बुद्धू और उसकी कमजोरी। वह खुद संवेदनहीन हो गया लेकिन किसी की संवेदना से तालमेल नहीं बिठा सका। वह उससे दूर तो होता ही लेकिन पहले खुद से भी दूर हो गया। लेकिन वक्त के हिसाब से बुद्धू के माथे की सिकन और बुद्धू की कमजोरी को पहचानना अब काफी मुश्किल है। क्योंकि उसने इंसानियत के बीज बोते हुए कुछ पैमानियत के बीज भी डाल दिये, जो आज उग गये हैं जिसे देखने वाला हर शख्स आज हैरान होता है कि आखिर इस बुद्धू को कैसे समझाया जाए और वह समझे भी कैसे, नाम भी तो बुद्धू ही है....
और फिर कभी...

पूस की रातें हैं कितनी खास!


पूस की रातें हैं कितनी खास!
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तुम्हारी ओर देखता हूँ, तुम्हें अपनी ओर आते देखता हूँ। सर्द मौसम में लेकिन एहसास सर्द में भी खूबसूरत। ऐसी सर्द की रात जो हुई नहीं है लेकिन जिसका इंतजार होता है। हवाएं नहीं लेकिन मालूम पड़ता है तुम्हारी खुशबू बिखर कर सरसराती हुई मेरी ओर कहीं न कहीं से आ ही जाती है। ओंस...शबनम, नहीं उससे भी खूबसूरत अल्फ़ाज़ अगर ईजाद हुए हों तो उसी की तरह उसमें घुली ताजगी से लबरेज वह किसी फूलों के गुलशन की पानी की बूंदें मेरे हाथों पर पड़ते हुए ऐसे लगती हैं जैसे तुम मुझसे हर वक्त बाहों में लिपटी हुई हो।

हां, तुम्हारी ओर देखकर लगता है कि तुम घने कोहरे के कंबल से ढकी हुई परदा कर रही हो और इतना कहकर कि थोड़ा और रुको मैं आती हूँ.....तब तक मुस्कुरा देता हूँ और उस कोहरे से सब कुछ ढक जाता है। ठहरा सा रहता है। भीगी सी दिखती हैं हर ओर फूलों की कली से लेकर मिट्टी तक। उसकी सौंधी खुशबू से मानो कुछ देर के लिए पत्ते भी शरमा जाते हैं और उड़ने की बजाय वहीं ठहर जाते हैं.....तो ऐसे आता है दिसम्बर
लगता है सब कुछ आ गया हो पल भर में। जून की विरह वेदना और जुलाई की भीगती यादों से कोई गुजरता पल अगर मेरे पास से होकर गुजरता है तो उसे थामने की कोशिश में दिसम्बर खुल कर मेरा इंतजार करता है। उसे हराने की कोशिश करता है। वह सब कुछ मिटा देता है। मेरे अंदर की गरीबी, बिखरती खुशियां और सब कुछ यह हर लेता है।
‌अब कोहरा छटता है तो मानो लगता है कि जिंदगी की सुबह हो चुकी है। तुम्हारी ओर देखता हूँ गगन ठीक वैसे ही दिखता है जिसने अपनी सतरंगी दुनिया को मेरे और तुम्हारे आने की खुशी में ऐसे उतारा है जैसे हम किसी बंधन में बंध गए हों। मैं तुम्हारी ओर देखता ही हूँ और फिर मुस्कुराता हूँ और सूरज को मुझसे मालूम न जाने क्यों जलन हो जाती है कि अपनी सतरंगी किरणों को चारों दिशाओं में फैला देता है अब तो उजाला हो जाता है और मेरे और तुम्हारे बीच की दूरियां खत्म हो जाती हैं। कोहरे का श्रृंगार अब सूरज की सादगी के आगे फीका पड़ जाता है। लेकिन फिर भी कुछ ही पल शाम की घड़ी आती है और उस पल हम दोनों ही ठिठुरते हैं। कुछ लकड़ियां जलाता हूँ और फिर उसके किनारे बैठ कर बीते बेकार लम्हों को तापने की कोशिश करता हूँ। एक बार फिर से तुम्हारा और मेरा मिलना होता है और इस बार चंदा को भी वो कोहरा ढक लेता है। पंछी भी सभी आ आकर अपने घोंसले में बैठ जाते हैं। मेरे और तुम्हारे बीच फासले केवल आग की लाल लपट से ही देखे जा सकते हैं लेकिन कोई देख नहीं रहा होता केवल तुम और मैं एक दूसरे को देख रहे होते हैं...तुम मुस्करा रही हो और मैं तुम्हारे प्रत्युत्तर में तुम्हें खींचकर अपनी बाहों से लपेट लेता हूँ। इसके पहले कोई देखे चंदा भी निकल कर सामने आये इसी लुका छिपी के खेल के बीच तुम्हें चूम लेता हूँ और तुम्हारे चेहरे का खिलना और मेरी प्रसन्नता का यह रोमांचक क्षण का गवाह अब केवल एक पूस की रात ही बनती है।
यही है दिसम्बर एक जन्म और फिर उसमें मेरा जन्म। ठीक इसके बाद सुबह होते ही फिर से थोड़े देर बाद यही डर लगने लगता है कि नया साल आने वाला है....प्यारा दिसम्बर और तुम यानी दोनों अलविदा कहो इससे पहले मैं तुम दोनों को अलविदा कहने तुम्हारे पास चला जाता हूँ और फिर से नया जन्म लेने लगता हूँ। प्रभात के आने का क्रम चलता रहता है। हर साल नया अध्याय लिखना चलता रहता है। प्रभात अपने आने पर किसी को भुला न सके। यही तो उसकी अलग पहचान है।
प्रभात


कभी-कभी हम अपने एहसासों को


कभी-कभी हम अपने एहसासों को किसी के लिए बयां नहीं कर पाते। उनके प्यार और दुलार के आगे मौन रहना विवशता होती है। मन चाहता है ऐसे इंसान को गले लगा लूँ, एक बार चूम लूँ। लेकिन, समाज के आगे उस प्यार को एहसान मानकर चलने को नैतिकता विवश कर देती हैं। 

खुशियों को व्यक्त करने के साधन के रूप में केवल अपनी कलम ही बचती है और फिर कहानियों में ही उस पल का जिक्र हो पाता है...
प्रभात


कुछ ऐसे सपने भी होते हैं


कुछ ऐसे सपने भी होते हैं जिन्हें हम नींद में देखते हैं अनुभव करते हैं, एहसास करते हैं और इन्हीं में ऐसे ही बहुत सारे चेहरों को बदलते किरदारों के रूप में भी देखते हैं। इन सबके बावजूद किसी वजह से हम ऐसे किरदारों तक अपनी बात नहीं पहुंचा पाते।

चाहकर भी न बता पाने की वजह से यहाँ भी उन सपनों का मर जाना ही होता है, जिन्हें हमने बंद आंखों से देखा है। खासकर तब जब वास्तविक दुनिया में किरदारों तक पहुंच नहीं होती या यूं कहें कि कभी थी, मगर अब नहीं है।
प्रभात


Tuesday 15 January 2019

प्रिय रागिनी


प्रिय रागिनी,
कितने दिनों बाद फिर तुम्हारे नाम का जिक्र यहां कर रहा हूँ। ऐसा नहीं है कि भूल गया था तुम्हें लिखना, न ही ऐसा है कि कभी बहुत अधिक याद करने लगा था। तुम तो मेरी कहानियों की पात्र हो। तुम्हारा साथ तो जब मैं 10 साल का था तबसे है और जब तक रहूंगा तब तक रहेगा। कहानियां लिखी जाएं तब ही हो, यह भी जरूरी नहीं। हमेशा तुम्हारी संकल्पना सजीव और वास्तविक रूप में मेरे दिलो दिमाग तक छवि बनकर ठीक वैसे ही पहुंचती है जैसे तुम्हें जानने की कोशिश किसी-किसी में की। हालांकि वह भी अधूरी ही रह गई।

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तो पहले इन चार पंक्तियों को तुम्हारे नाम समर्पित करता हूँ
"छोटा है शहर, अपने आप को गुमनाम करता हूँ
हां, अब इस शहर को तुम्हारे नाम करता हूँ"
"लिखता हूँ पन्नों पर अब तुम्हारे नाम की सुर्खियां
हां, अब इस काम को तुम्हारे नाम करता हूँ"
पता नहीं कितना वक्त लगे, लेकिन एक कोशिश है ही तो पूरी भी होगी।
अब तुम्हारे नाम लिखी यह कविता
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माशूका हो तुम मेरी
तुम्हारे होने या न होने का कोई अर्थ नहीं,
बस तुम्हारे नाम का अर्थ है
वही रागिनी यानी नायिका मेरी
क्योंकि, मैं कविता हूँ समझो
बस लिखा जाता हूँ, पढ़ा जाता हूँ
समझा जाता हूँ, लेकिन
अधूरा रह जाता हूँ
इसलिये क्योंकि मैं कविता हूँ
अनुभव किया जा सकता हूँ
लेकिन, प्राप्त नहीं किया जा सकता।
मैं उस सीढ़ी पर बैठा हूँ जिसके पास तुम हो
हां तुम लेकिन, तुम हो भी!
यह संशय है।
अगर होते तो तुम नायिका नहीं होती
और कुछ भी आदर्श नहीं होता
रागिनी सुनो, यथार्थ क्या है...
धोखा और पत्नी यानी जो भौतिक हो
भौतिक हो यानी साथ हो
तुम इनमे से कुछ भी नहीं हो, प्यार हो
तुम्हें पाया नहीं जा सकता
तुम्हारा मिलना असम्भव है
क्योंकि तुम अगर गुलाब हो तो
तुम्हें देखा जा सकता है अनुभव किया जा सकता है
लेकिन छूते ही अस्तित्वविहीन हो जाओगी।
जिसे जो मिलता है वह धोखा
प्यार नहीं शादी, दोस्त नहीं पति
और जिसे दोस्त कहते हो वह दोस्त नहीं है रागिनी
दोस्त मतलब दोनों अस्त।
दोस्त मतलब न तुम और न मैं
दोस्त मतलब 'हम'
हम किसलिए किसी बंधन के लिए!
नहीं न।
तो किसलिए किसी स्वार्थ के लिए!
नहीं न।
तो किसलिए किसी इंसान के लिए!
नहीं न।
बस इसलिए क्योंकि तुम यानी रागिनी
वह शब्द जो अपने आप में इतना पूर्ण है
कि कुछ भी नहीं यहां तक कि कोई भी नहीं
समा सकता उसकी परिधि के अंदर।
जिसके सुनते ही उस माशूका का ख्याल आता है
जब अकेला होता हूँ हां, तब भी जब किसी के साथ होता हूँ
हाँ, तब भी जब मैं जितना सोचता हूँ उसके अर्थ के बारे में
वहां तक भी नहीं पहुँच पाता
और कह देता हूँ बड़े प्यार से कि
हां, तुम ही हो मेरी माशूका यानी रागिनी।
प्रभात