Wednesday, 16 January 2019

पूस की रातें हैं कितनी खास!


पूस की रातें हैं कितनी खास!
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तुम्हारी ओर देखता हूँ, तुम्हें अपनी ओर आते देखता हूँ। सर्द मौसम में लेकिन एहसास सर्द में भी खूबसूरत। ऐसी सर्द की रात जो हुई नहीं है लेकिन जिसका इंतजार होता है। हवाएं नहीं लेकिन मालूम पड़ता है तुम्हारी खुशबू बिखर कर सरसराती हुई मेरी ओर कहीं न कहीं से आ ही जाती है। ओंस...शबनम, नहीं उससे भी खूबसूरत अल्फ़ाज़ अगर ईजाद हुए हों तो उसी की तरह उसमें घुली ताजगी से लबरेज वह किसी फूलों के गुलशन की पानी की बूंदें मेरे हाथों पर पड़ते हुए ऐसे लगती हैं जैसे तुम मुझसे हर वक्त बाहों में लिपटी हुई हो।

हां, तुम्हारी ओर देखकर लगता है कि तुम घने कोहरे के कंबल से ढकी हुई परदा कर रही हो और इतना कहकर कि थोड़ा और रुको मैं आती हूँ.....तब तक मुस्कुरा देता हूँ और उस कोहरे से सब कुछ ढक जाता है। ठहरा सा रहता है। भीगी सी दिखती हैं हर ओर फूलों की कली से लेकर मिट्टी तक। उसकी सौंधी खुशबू से मानो कुछ देर के लिए पत्ते भी शरमा जाते हैं और उड़ने की बजाय वहीं ठहर जाते हैं.....तो ऐसे आता है दिसम्बर
लगता है सब कुछ आ गया हो पल भर में। जून की विरह वेदना और जुलाई की भीगती यादों से कोई गुजरता पल अगर मेरे पास से होकर गुजरता है तो उसे थामने की कोशिश में दिसम्बर खुल कर मेरा इंतजार करता है। उसे हराने की कोशिश करता है। वह सब कुछ मिटा देता है। मेरे अंदर की गरीबी, बिखरती खुशियां और सब कुछ यह हर लेता है।
‌अब कोहरा छटता है तो मानो लगता है कि जिंदगी की सुबह हो चुकी है। तुम्हारी ओर देखता हूँ गगन ठीक वैसे ही दिखता है जिसने अपनी सतरंगी दुनिया को मेरे और तुम्हारे आने की खुशी में ऐसे उतारा है जैसे हम किसी बंधन में बंध गए हों। मैं तुम्हारी ओर देखता ही हूँ और फिर मुस्कुराता हूँ और सूरज को मुझसे मालूम न जाने क्यों जलन हो जाती है कि अपनी सतरंगी किरणों को चारों दिशाओं में फैला देता है अब तो उजाला हो जाता है और मेरे और तुम्हारे बीच की दूरियां खत्म हो जाती हैं। कोहरे का श्रृंगार अब सूरज की सादगी के आगे फीका पड़ जाता है। लेकिन फिर भी कुछ ही पल शाम की घड़ी आती है और उस पल हम दोनों ही ठिठुरते हैं। कुछ लकड़ियां जलाता हूँ और फिर उसके किनारे बैठ कर बीते बेकार लम्हों को तापने की कोशिश करता हूँ। एक बार फिर से तुम्हारा और मेरा मिलना होता है और इस बार चंदा को भी वो कोहरा ढक लेता है। पंछी भी सभी आ आकर अपने घोंसले में बैठ जाते हैं। मेरे और तुम्हारे बीच फासले केवल आग की लाल लपट से ही देखे जा सकते हैं लेकिन कोई देख नहीं रहा होता केवल तुम और मैं एक दूसरे को देख रहे होते हैं...तुम मुस्करा रही हो और मैं तुम्हारे प्रत्युत्तर में तुम्हें खींचकर अपनी बाहों से लपेट लेता हूँ। इसके पहले कोई देखे चंदा भी निकल कर सामने आये इसी लुका छिपी के खेल के बीच तुम्हें चूम लेता हूँ और तुम्हारे चेहरे का खिलना और मेरी प्रसन्नता का यह रोमांचक क्षण का गवाह अब केवल एक पूस की रात ही बनती है।
यही है दिसम्बर एक जन्म और फिर उसमें मेरा जन्म। ठीक इसके बाद सुबह होते ही फिर से थोड़े देर बाद यही डर लगने लगता है कि नया साल आने वाला है....प्यारा दिसम्बर और तुम यानी दोनों अलविदा कहो इससे पहले मैं तुम दोनों को अलविदा कहने तुम्हारे पास चला जाता हूँ और फिर से नया जन्म लेने लगता हूँ। प्रभात के आने का क्रम चलता रहता है। हर साल नया अध्याय लिखना चलता रहता है। प्रभात अपने आने पर किसी को भुला न सके। यही तो उसकी अलग पहचान है।
प्रभात


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