Thursday 9 August 2018

बारिश बहुत सामान्य सी बात है


बारिश बहुत सामान्य सी बात है।
हां, मेरे लिए भी।

अच्छा लगता है
कागज के नाव में बचपन को देखना,
या झूलों पर बैठ कर भीगना हो।
हां, धान की रोपनी गीत गाते देखना भी
सबमें सुर भी है, ताल भी है।
मेढक के अलग सुर
बादलों के अलग सुर,
हां, बूंदों के भी सुर।
क्योंकि बारिश बहुत सामान्य सी बात है।

लेकिन, यही सुर शोर बन जाए तो
चाहे वह किसी का फिसलना हो,
किसी का डूबना हो,
हां, घर का भी।
बादल फटना हो तो भी
चिर्री लगना हो तो भी,
कुछ ढहना हो तो भी,
बारिश बहुत सामान्य सी बात है।
लेकिन, अब अखबारों में छपना
और मुआवजा देने वालों के लिए।

टहनियों का गिरना देखा ही होगा
लेकिन, पौधों का मरना?
हाँ, देखा होगा तो खेतों का डूबना भी
और उनका डूबकर खत्म हो जाना।
इनके मर्म को कौन जानता है?
जो निर्भर हैं कीट पतंगे,
पशु पक्षी यानी सभी जीव जंतु
हां, खिलते फूल भी।

बारिश बहुत सामान्य सी बात है।
मेरे लिए भीगने की आस में
बाढ़ में तैरती मछलियों के लिए भी,
पकौड़ों और भुट्टे खाने वालों के लिए भी,
हां, नौका विहार करते हुए जोड़ों के लिए भी,
लूह लगकर तप रहे लोगों के लिए भी।

लेकिन, डूबना, बरसना या चहकना
याद तो दिलाती हैं।
किसी के बिछड़ने की
हां किसी को खोने की,
किसी के जाने की।

लेकिन, बारिश बहुत सामान्य सी बात है
उनके लिए जो डूबना नहीं चाहते,
जो तैरना जानते हैं,
जो खुशनुमा माहौल को याद करते हैं।
हां, दूसरी ओर ऐसे लोग भी
जो याद ही नहीं रखना चाहते, भूल जाते हैं।
जिन्हें देखना या सुनना नहीं आता
जो राज करना जानते हैं,
और सबसे बड़ी बात यही कि जो संवेदनहीन हैं।

#प्रभात

एक अजनबी शहर जहां तुम मिले

एक अजनबी शहर जहां तुम मिले
या यूं कहें कि हम मिले
हमसे ज्यादा ख़ूबसूरत रातें भी हुईं
दिन रात ख्वाब बनकर जो चल रहे थे
अब ख्वाबों के बाद सुबह हो गई
वो रास्ते जो हमें देख रहे थे
आज पूछते हैं कि हम कहां गए।


टूटती चरमराती लकड़ियों की तरह
यादों का बार बार स्मरण हो जाना
जैसे महुए के फल का सुबह सुबह टपकना
वैसे ही लिबास पर गिरती हैं कुछ बूंदे
स्मृतियों की, हंसी खुशी वाले रास्तों की
बातों की बहती दरिया में बहते पलों की
वो पल जो हमारे गवाह बन कर जी रहे हैं
या यूं कहें कि जहां पर कभी कभी लौट जाते हैं
आज पूछते हैं कि तुम कहाँ गए।

लेकिन, हम बताते हैं कि हम आ गए हैं
बहुत दूर, जहां तुम्हारा अलग गांव ही नहीं है
बल्कि संसार है, और मेरा अलग संसार
रास्तों, कभी हम थे अगर तुम्हारे सामने
तो आज कोई और हमसफर होगा उसी राह पर
फिर क्या सबसे पूछोगे कि तुम कहाँ गए
चलना तो है ही तुम्हारी राह पर हर किसी को
फिर क्यों पूछते हो हम कहाँ गए, कहाँ गए।

कभी कभी खाली बैठने से कवित्व भाव बन कर दिल में उमड़ने लगता है, इसलिए लिख दिए, लेकिन मैं कवि नहीं हूं।

#प्रभात

तस्वीरः गूगल साभार

समाज का आईना देखिए

एक भाई साब जैसे ही मुर्गी को एक थैली में लटकाए और चाकू को दूसरे हाथ में पकड़े रसोई में प्रवेश किए तो मुझसे कहने लगे कि ये लोग कितने हिंसक हैं जिंदगी बर्बाद कर दी है इन्होंने उसकी। इतनी दरिंदगी से पेश आये। पीट-पीट कर उसे मार डाला। मैंने कहा हां, बहुत गलत किया।
अच्छा चलिए खाना खाते हैं, क्या लाए हैं, आपको क्या अच्छा लगता है, उसने कहा।

मुझे शाक सब्जी के सिवा कुछ भी नहीं, मैंने कहा।

मुझे तो उसका जेनाइटल पार्ट खाने में बहुत ही अच्छा लगता है।...... यार मंदसौर वाली कहानी कितनी दर्दनाक है। बच्चे को नहीं छोड़ा। तड़पते हुए......,उसने कहा
जरा एक पीस देना उसने अपने दोस्त से कहा, ये लो पीछे का पार्ट, इतना कहते हुए उसने दे दिया। और वह कत्ल, दरिंदगी और हिंसा पर जमकर लेक्चर देता गया, साथ ही उसने ये भी बताया कि कैसे उसके यहाँ प्रोग्राम में जानवरों को पानी मे उबाल उबाल कर मारा जाता है।
-----------------------------------
यार तुम्हें पता है कि वो लड़की जो अभी तुम्हें मिली थी वो रंडी है उसने कई लोगों के साथ सेक्स किया है। मैंने पूछा, अब तक तुमने कितने लोगों के साथ किया.......
वह हिचकिचाया और उसने कहा लेकिन....मैंने तो बस गिनती नहीं है.....
------------------------------------
अच्छा सुनो तुम मुझे किस करना बंद करो चलो पेड़ के पास बैठते हैं जहां कोई हमें देख न ले......और ये बताओ तुम इतने झूठ कैसे बोल सकते हो कि तुम कल उस सांवली लड़की के साथ पार्क में बैठे थे....अरे वो मिल गई थी। और तुमने क्या क्या छुपाया।
तुम तो बहुत झूठे हो..., उस लड़की ने उस पर गुस्सा करते हुए कहा।
तभी उस लड़की के पास उसके पिताजी का कॉल आया, बेटा तुम कहाँ हो
मैं....पापा अभी मार्किट आयी हूं, थोड़ी देर में बात करती हूं
....................................
बीयर पीने में क्या है, दारू तो पहाड़ों में जहां बर्फ पड़ती है वहां पीने में आनंद है, और तो छोड़ो कसौल चलेंगे वहां एकाध कश तो ले ही सकते हैं। वैसे भी इसी का आनंद है, इतना वह कह ही रहा था तभी उसने देखा
पास में बैठा एक रिक्शा वाला पीकर बड़बड़ा रहा था। उसने कहा अरे ये पियक्कड़ लोग इतने घटिया लोग हैं, दारू पीकर बड़बड़ा रहा है, काफी तेज दुर्गंध आ रही है। ऐसे लोगों को पकड़ के पीटो

#प्रभात

इसमें कुछ भी साहित्य नहीं है। सच सीधे आप तक, इसलिए आपका पसंद नापसंद करना मेरे लिए जरूरी नहीं।

सावनः गुड़िया पीटना

इस तरह बारिश में भीगते हुए मैंने देखा था अपने आपको बस एक बार, बहुत छोटा बच्चा था, एक-एक बूँद भी पड़े तो समझो मेरे हाथों में सिहरन सी होने लगती। लगता कोई हवा चल रही हो और वो अंदर प्रवेश करके सीधे मस्तिष्क तक पहुंच गई हो। हम कागज की नाव बना कर आंगन में भरे लबालब पानी में पौड़ाने के लिए तैयार रहते। मन करता था तो चम्पक की कहानियों में बंदर मामा और छोटी बिल्ली की तस्वीरें देखते जो भींगते रहते और छाता लेकर खड़े होते थे। इससे जब मन नहीं भरता तो पंचतंत्र की कहानियां पढ़ लेते जिसमें सियार और गधों की कहानियां मानों पता नहीं कितने तरीकों से तस्वीर बना देती थीं।
इसके बाद ही जब जुलाई में बारिश तेज होती थी तो दादी जी गुड़िया बनाने लगतीं। सूती कपड़े और कपड़ों से लपेट कर हल्दी में भिगोकर जब गुड़िया तैयार होती थी तो लगता था आज के इलेक्ट्रॉनिक गुड्डे उसकी तुलना में कुछ भी नहीं हैं। हम दोपहर में अपने अपने लिए एक छोटा से पौधे का तना काट ले आते थे। जो छोटे और पतले डण्डे की भांति होता था। इस डंडे को सुखाने से पहले छीलकर उसके त्वचा को बीच बीच से हटाकर डिजाइन तैयार करते थे और जरूरत पड़ने पर रंग से रंग दिए जाते थे। लड़की यानी दीदी गुड़िया हाथ मे लेती थीं। दादी कटोरे में चना और मटर भिगोया हुआ लेकर और हम भाई डंडा लेकर चल पड़ते थे जलाशयों की ओर। बारिश के मौसम में चारों तरफ पानी और उसमें बैठे मेंढक की टर्र टर्र की आवाज एक के बाद एक ध्वनि प्रदूषण के जैसे मगर बहुत सुकून देते थे। कसहरी यानी मूजा/ नुकीले सरकंडे वाले घास के बीच से सरसराती हवा और नीचे से घटघट और टकराती पानी की आवाज बहुत ही आहिस्ता से दिल के कोने में जा टकराते थे। तालाब में नहीं पहुँच पाते क्योंकि तालाब उन दिनों भर जाता था। गड्ढा/ गड़हा में पानी भरा रहता और वही पर गुड़ियाँ को ते
तैरा दिया जाता। और हमें संकेत मिलते ही हम उन्हें डुबोने के लिए पानी में अपने अपने डंडे से खुद छपकिया मारते, तब तक जब तक गुड़ियाँ डूब नहीं जाती थीं। इसके बाद गाना जिसे कजरी कहते हैं, गाते हुए घर वापसी में चना और मटर जो कच्चा और भिगोया होता था, नमक के स्वाद के साथ खाकर खुद को इतना आनंद लेते इसके बाद कभी नही पाया।
फिर अब बारिश में घर से बाहर निकलना यानी यादों को बटोरना ही है। सौंधी मिट्टी को सूंघना और उन मीठे पानी को दिल तक ले जाना केवल अहसास करके खुद को समझाना ही है।
ये सावन का आना, नागपंचमी और गुड़िया सेरवाना कभी नहीं भूलेगा।
तस्वीर: गूगल साभार, सांकेतिक