है अब भी अगर कुछ रात के साये में
तो सूरत तेरी और खामोशी बड़ी
मैं बाग में बरगद का पेड़ हूँ खड़ा
और तुम लता मुझसे लिपटे
ओंस से लथपथ तुम यूँ ही रहे हर सहर
और मैं तुम्हें देखता रहा हर शामतो सूरत तेरी और खामोशी बड़ी
मैं बाग में बरगद का पेड़ हूँ खड़ा
और तुम लता मुझसे लिपटे
ओंस से लथपथ तुम यूँ ही रहे हर सहर
कंपकंपी में तुम एक दिन बिछड़ गए
और मैं वहीं खड़ा हूँ बाग में रात में
-----------------------------------------
एक झलक पाने की थी ख्वाहिश उसकी
मैं उस तक पहुंचना उचित न समझा
इंतजार कर रहे थे जो वर्षों से मेरी
मैं उसको कुछ बताना उचित न समझा
मैं जब भी जहां भी अब जाता हूँ
उसे ढूंढ़ता हूं और इंतजार करता हूँ
...…......
अब दोनों की ख्वाहिशें हैं एक जैसी
कुछ हम अधूरे तो कुछ तुम अधूरे
मैं उस तक पहुंचना उचित न समझा
इंतजार कर रहे थे जो वर्षों से मेरी
मैं उसको कुछ बताना उचित न समझा
मैं जब भी जहां भी अब जाता हूँ
उसे ढूंढ़ता हूं और इंतजार करता हूँ
...…......
अब दोनों की ख्वाहिशें हैं एक जैसी
कुछ हम अधूरे तो कुछ तुम अधूरे
(कभी हम और कभी तुम)
-प्रभात
No comments:
Post a Comment
अगर आपको मेरा यह लेख/रचना पसंद आया हो तो कृपया आप यहाँ टिप्पणी स्वरुप अपनी बात हम तक जरुर पहुंचाए. आपके पास कोई सुझाव हो तो उसका भी स्वागत है. आपका सदा आभारी रहूँगा!