Tuesday, 4 December 2018

मैं वहीं खड़ा हूँ बाग में रात में


है अब भी अगर कुछ रात के साये में
तो सूरत तेरी और खामोशी बड़ी
मैं बाग में बरगद का पेड़ हूँ खड़ा
और तुम लता मुझसे लिपटे

ओंस से लथपथ तुम यूँ ही रहे हर सहर
और मैं तुम्हें देखता रहा हर शाम
कंपकंपी में तुम एक दिन बिछड़ गए
और मैं वहीं खड़ा हूँ बाग में रात में
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एक झलक पाने की थी ख्वाहिश उसकी
मैं उस तक पहुंचना उचित न समझा
इंतजार कर रहे थे जो वर्षों से मेरी
मैं उसको कुछ बताना उचित न समझा
मैं जब भी जहां भी अब जाता हूँ
उसे ढूंढ़ता हूं और इंतजार करता हूँ
...…......
अब दोनों की ख्वाहिशें हैं एक जैसी
कुछ हम अधूरे तो कुछ तुम अधूरे
(कभी हम और कभी तुम)
-प्रभात

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