बस इतनी ही तो चाहत थी कि कोई दीवाल न हो,
जो तुम्हें और मुझे अलग कर सके।
कोई ऐसी रात न हो,
जो तुम्हें और मुझे उस रात की याद से बाहर कर दे,
जिस रात हमारी मुलाकात हुई थी।
कविता कोई ऐसी न हो जिसे तुम पढ़ न सको
मेरे लिखने से पहले, लिखने के बाद भी,
यहां तक कि मेरे अलविदा कह देने के बाद भी।
लेकिन, नहीं
ये तो चाहत थी मेरी और तुम्हारी न।
कहानी थी और कविता भी।
लेकिन, दीवाल तो थी ही
हम कब तक इसे नजर अंदाज करते,
कि वक़्त की कुछ खूबियां हैं,
हर रात के बाद सुबह होनी ही है।
लेकिन पूस की उस एक रात को
ऐसे हर बार लिखता रहूंगा
क्योंकि ये मेरी चाहत नहीं रही कभी।
-प्रभात
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