Tuesday, 4 December 2018

रेल की खिड़की के पास बैठी वह लड़की


सांझ ढल रही थी और हांफते हांफते रेल में चढ़ा था। बस सीटी बजकर खुली ही थी रेल और उसने दूर से ही देखकर मेरी तरफ इशारा किया कि मैं यहां हूँ। हंस रही थी पगली उसके दांत दिख रहे थे और मैं भी चलती रेल देखने के बजाय उस पर ही निगाह दौड़ाया हुआ था। जल्दी से पायदान पर पैर रखकर उसकी ही सीट के पास पहुंच गया। उसने कहा कुछ नहीं लेकिन समझ गया था कि वह अपने पास बैठने के लिए कह रही थी।
झट से मैं बैठ गया। अरे पसीना! इतना कहकर वह अपने सिल्की दुपट्टे से मेरे माथे के पसीने को पोछने लगी, जैसे वह कह रही थी कि अरे तुम्हें इस पूस की शाम इतनी गर्मी कैसे आ गई। क्यों पीछे रह जाते हो, कहीं तुम यह रेल न पकड़ पाते तो!


मैं हल्का सा मुस्काया और कहा तो फिर मिलते वहीं जहां तुम पहुँच जाते, भले ही थोड़ी देर बाद ही सही।
उसने कहा 'नहीं' फिर मेरा रास्ता कैसे कटता। फिर मुझे लगा ये क्या बात हुई। झूठ ही बहाना मार रही लड़की। मैंने मन ही मन सोचा.….बस कहा नहीं।
फिर थोड़ी देर बाद उसी में जैसे ही यह लाइन उसने जोड़ा मैं तो तुम्हारी वजह से ही जा रही हूं इस ट्रिप में वरना मैं न जाती।
मुझे फिर लगा कि कुछ इमोशंस का भी खेल है।
खैर और सभी बच्चे खेलने में व्यस्त, कोई चिड़िया उड़ और कोई कौवा उड़ बोल रहा था। शोर बहुत कम सुनाई दे रही थी। रेल अपनी गति की अधिकतम सीमा के करीब पहुँच गई थी। रात हो चुकी थी। लेकिन सांझ अब भी अपनी छाप आसमान में छोड़ रखा था। गुल्ली डंडा वाले लड़के और उनके गांव पीछे छूटते जा रहे थे। अब तक पसीना सूख चुका था।
वह लड़की अब बात कर रही थी लेकिन उसकी बातें अब रेल की आवाज में दब सी जा रही थी।
मैंने कहा अरे उधर देखो कितना सुंदर सूरज का गोला हमसे दूर होते जा रहा है। वह अपना कैमरा घुमाते हुए बोली। अरे मुझे कैद करने दो इसमें सारी तस्वीर। जैसे ही कैमरा उसने घुमाया रेल घूम गयी और दृश्य आंखों के सामने से एकाएक गायब सा गया। अब उसने गुस्से में अपना कैमरा मेरी तरफ घुमाया और उसमें मेरी एक ऐसी तस्वीर खिंच गयी जिसमें मैं उसे प्यार भरी नजरों से देख रहा था और देखते हुये मेरी खामोशी इतनी हावी थी कि मेरी मुस्कराहट गायब थी। मैंने कहा प्रिय तुम इसे डिलीट कर दो अच्छी नहीं है। उसने चिढ़ाते हुए कहा, जाओ नहीं करती मैं।
रात में खिड़की वाली सीट पर बैठे हम दोनों बाहर यूँ ही देख रहे थे। सब ओर काला काला ही था। कुछ भी तो नहीं था बाहर लेकिन उस अंधेरी रात में मैं था और वह थी। उसकी खिलखिलाहट और उसके बाद खामोश चेहरा था।उसकी काली काली बड़ी आंखें और चेहरे पर प्यार भरे भाव की झलक थी। उसके बालों की खुशबू और उन बालों के करीब मेरा खोया हुआ मन था।......इसके बाद इतनी खामोशी के बाद जब मैंने थोड़ी देर के लिए कुछ नहीं कहा तो उसने कहा कि तुम कुछ कहना चाहते हो। मैंने कहा, नहीं।
उसने कहा देखो आकाश के करीब या इन बाहर से आती हवाओं को। खिड़कियों से दूर उस आकाशगंगा की सैर लगा लो जो तुम्हें थोड़ी देर के लिए मुझसे दूर लेकर चली जाए। मैं सच में थोड़ी देर के लिए बाहर देखने लगा उसे बिना देखे ही। निहारे ही। मैं झांक रहा था जैसे वह झांक रही थी बाहर। मैं अंधेरे में अब सब कुछ वह देख रहा था जो मुझे उसे दूर करने के बजाय बहुत करीब होने का एहसास करा रही थी। मैं सोच रहा था कि सचमुच इस खामोशी में जो प्यार भरा संवाद है वह मुझे उसके पास बैठे होने के बाद और गंभीर बना रहा था कि उसके दिल की धड़कनों को सुन सकूँ। उसे और तवज्जो दे सकूँ।
मैं उसके करीब था लेकिन, इतना ही करीब कि केवल आंखों की पलकों को गिराकर उसके सिर के पार्श्व हिस्से में दिख रहे बालों को ही देख सकता था बाकी सब कुछ ओझल हुआ जा रहा था। वह चाहे खिड़की के बाहर का दृश्य हो और चाहे उसके पास बैठे होने का दृश्य।

यही तो प्यार है (कुछ अनकहे किस्से)
-प्रभात

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