आज आपको अपने घर के पिछवाड़े सीधे लाइव ले जाते हैं। वैसे पूरी जगह
तो नहीं जो भी बची खुची है उतने में कुछ पेड़ अभी भी विरासत में उपहार स्वरूप दादा
जी के अलविदा कह देने के बाद बचे हैं। सबको दिखा पाना भी अभी मुमकिन नहीं है।
लेकिन पुरखों के बाद हिस्सेदारी में घर परिवार के बर्तन और इन नैसर्गिक फलों के
अलग हो जाने के बाद अब केवल मेल जोल आंखों की आंखों से ही रह गया है।
किस्से सुनाने हो तो आप कभी घर आइएगा तो आपको एक तरफ टूटा फूटा
बैलगाड़ी का पहिया मिल जाएगा जिसको घर के पुरातत्व वेत्ताओं द्वारा संरक्षित इसलिए किया गया है क्योंकि इसकी नीलामी
आज तक बैलों की जोड़ी चले जाने के बाद नहीं हो पाई। एक ओर आंगन की दीवाल केवल रबीस
(मोरंग जैसा जो भट्ठों पर से निकलता था) और कुछ ईट से बने हुए अभी भी वैसे ही खुले
आसमान में किसी टीले की तरह खड़े होकर मुसकरा रहे हैं जैसे मोहनजोदड़ों की सभ्यता के
कुछ नींव। एक दरवाजा जो चरमराता है वह दीवाल में कब्जा से इस तरह लगा है जैसे
जयपुर के किले की दीवार। आंगन में आजकल मुगल गार्डन की तरह कुछ पुष्प खिले रहते
हैं। भूसे वाला मकान नहीं है लेकिन उसकी खिड़की आज भी वैसे ही खुली है जैसे उसमें
अब भी भूसा बचा हुआ हो।
आंगन के बाहर आम की कई प्रजातियां हैं जिन्हें आप शायद पहली बार
सुनें क्योंकि ये हर घर में कुछ मापदंडों के आधार पर वर्गीकृत करके नाम दिए जाते
थे। उन्हीं में से कुछ नाम हैं- कोनाहवा यानी सीमा देखने पर कोने वाला पेड़, गड़हवा यानी गड्ढे में जबकि गड्ढा पट चुका है लेकिन नए गृह वैज्ञानिकों ने
इन पर शोध करने की हिम्मत नहीं जुटाई क्योंकि अब तक ये पौधे एंडेन्जर्ड प्रजातियों
में आ चुके थे। जिन पर शोध कार्य पर घरकारी प्रबंध लग चुका था। पहले तो हम बच्चे
थे लेकिन बहुत ही अनूठे वैज्ञानिक पैदा हुए थे हाथ में बसूला, कुल्हाड़ी आया नहीं कि पुराने, नए क्या सभी प्रकार के
पौधों को तेजी से काट कर अनुप्रस्थ काट का सचित्र वर्णन किया करते थे। इसी वर्णन
करते हुए दादा जी दूर से ही डायरेक्टर की तरह बोल पड़ते अरे नालायक, उजड्यो तुम्हें कुछ पता है कितनी मेहनत के बाद ये इतने बड़े हुए हैं और तुम
अंडरवीयर खोल के चल दिये गेड़ासे लइके। अरे उनके अम्मा सुनत हाऊऊ........खैर ऐसे ही
कई प्रजातियां लगी हुई हैं। अमरूद की प्रजातियां ललगुदिया यानी लाल गूदा वाला,
पनिहवा यानी पानी में जो वर्ष के ज्यादातर समय भरा रहता था।
एक पेड़ शहतूत यानी मलबरी का भी होता था। धूप नहीं आती थी। यह पेड़
अन्य मुख्य पेड़ आम, आंवला, करौदा और अमरख के बीच
में होने की वजह से एक तो वैसे ही बढ़ ही नहीं पाता था। दूसरे उसकी टहनियां किसी
तरह से तड़प तड़प कर जब थोड़ी बड़ी होती थीं तो आम के चक्कर में दादाजी की नजर में आते
ही कट जाया करती थीं और हम उसके बाद उसके जड़ की कटे घावों पर मरहम लगा कर घण्टों
शोक मनाया करते थे। आज तक अपनी जान बचाएं वह भी खड़ा हुआ है। क्योंकि दादाजी आज
नहीं हैं। हालांकि और मुख्य पौधे आज दादाजी के न होने की वजह से उनके साथ ही चले
भी गए।
यही बस कुछ बची खुची विरासत है। सरंक्षण का काम करने के बावजूद।
बाकी तो न जाने कितनी चीजें हम खो चुके हैं पाने की तुलना में। जैसे कुएं, तालाब, डिहरी, डोलची, छप्पर, चरवाहा, दहिया वाली,
दिया वाली, गोबर की लिपाई, बरहा पानी, गौरैया, चूल्हा......
तस्वीर- प्रभात
No comments:
Post a Comment
अगर आपको मेरा यह लेख/रचना पसंद आया हो तो कृपया आप यहाँ टिप्पणी स्वरुप अपनी बात हम तक जरुर पहुंचाए. आपके पास कोई सुझाव हो तो उसका भी स्वागत है. आपका सदा आभारी रहूँगा!