Tuesday, 3 April 2018

नहीं लिखी जातीं


नहीं लिखी जातीं अब मुझसे कविताएँ
हाथ कांपते हैं, लिखते हैं जब हम कुछ

आंखों में आंसू तो क्या चोट पर रक्त भी नहीं
निकलते, मिट गई हैं सारी संवेदनाएं
नहीं लिखी जातीं......
इधर-उधर की ठोकरों से स्थिर हो गया हूँ
मन के उलझनों में खो सा गया हूँ
विश्वास और अविश्वास की खाई पटने वाली कहाँ
हर ओर जख्म ही करतीं कल्पनाएं
नहीं लिखी जातीं......
कौन क्या है किस पर कितना भरोसा करेंगे
बस शरण दो तो भष्मासुर बनकर भी लड़ेंगे
किसी की आदत और गुनाह मौत लिखते हैं
कोई सनम ही खुदा बन देतीं यातनाएं
नहीं लिखी जातीं......
दरिंदगी का जमाना अब छूने की जिद में है
सबके जेहन में खतरा और हिंसा रग में है
जुल्म न्याय करने वाले की फितरत में है
यहां गोलियों से बदलती हैं भावनाएं
नहीं लिखी जातीं......
#प्रभात
तस्वीर: गूगल साभार


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