किताबों से दोस्ती अच्छी हो जाये तो फिर दोस्त भूल ही जाते है,
जब मैं अकेला होता हूँ तो मेरी जिज्ञासा
उन किताबों के पन्नों में लिखे शब्दों को जानने की होती है………………………………………………………..
और उन पन्नों को पढने के बाद मैं सोचने
लगता हूँ आखिर मैं क्यों नहीं कोई किताब लिख सकता, इतने में ही किताब के पन्नें सिमट
जाते है और फिर सोचता हूँ लिखूं तो किस पर/ किसके बारे में लिखूं ...ध्यान आता है कि
लिखना ही है तो मैं क्यों न २-४ साल पहले वाली कोई बात लेकर उसे अपना विषय वस्तु मान
कर लिखूं............परन्तु ऐसा हो नहीं पाता कि एक ऐसी घटना घटित होती है कि पूरा
ध्यान उस पर चला जाता है और मेरी कलम एक पन्ने पर जाकर रुक जाती है और वह भरोसा दिलाती
है कि अब तो इस पर एक ऐसा लेख लिखूंगा कि आज तक ऐसा किसी महान लेखक ने भी नहीं लिखा
होगा .......
और तभी मुझे याद आता है उस समय का जब, मैं अपने कमरे की दीवार पर
एक कागज़ पर रंगी हुई दो लाईनें लिख कर लगाया करता था """सुबह -शाम,
दिन -रात होना ही प्रकृति की परंपरा है; सुख -दुःख सहना आना चाहिए बिना इसके कहाँ सफलता
है ??"''
हाँ जब इस पंक्ति पर मेरा ध्यान जाता है तभी मेरी कलम कुछ लिखते
लिखते उस विषय वस्तु को अधूरा छोड़ देती है परन्तु विश्वास दिलाती है की तुम आगे की
विषय वस्तु पर चिंतन करते रहो , अभी जो है उसको विराम दे दो क्योंकि वह तो सोचते ही
सोचते इतनी विस्तृत हो चली है कि उसे लिखने की आशा में आगे की विषय वस्तु यूँ ही भूल
जाएगी.......
परिस्थितियां ही तो सब कुछ करवाती है......और वही तो कभी लेखक तो
कभी विद्वान बना देती है और अगर कुछ नहीं तो उसे कुछ ऐसा सिखा जाती है जो कभी किसी
किताबों के पन्नों से या किसी के द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकती.......
Very good
ReplyDeletethanks!
DeleteInteresting
ReplyDelete:-))
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