Thursday, 11 October 2012

अगले दस बीस सालों बाद तो ये छोटी-छोटी धरोहरें, नगरी किसी कूड़े के ढेर में पड़े मिलेंगे, अगर ऐसा ही बदलाव होता रहा !


 इस बार मेरा घर जाना सौभाग्य था...सोचा था कि अब आगे पता नहीं किस छुट्टी में घर जाऊंगा, तो क्यों न अभी ही हफ्ते भर के लिए घर चला जाऊं I मैंने पिछले महीने के २५ को अपने घर जाने के लिए गोरखधाम ट्रेन में आरक्षण कराया था.....हुआ यह कि उसके ३ दिन पहले ही मै बीमार पड़ गया, मै तेज ज्वर से पीड़ित था, ठंडी लग रही थी, और मै बिस्तर से उठ भी नहीं सकता था, खाना-पीना छूट गया था मै केवल पानी और अनार के फल पर था.
 ऐसी स्थिति में मेरा घर जाना बहुत जरुरी था लेकिन जो मेरा मकसद था कि घर अच्छे से छुट्टियाँ कटेगी, उस पर तो पानी फिर गया,
यह दिल्ली भी कितनी अजीब है यहाँ छात्रावास से बाहर रहना तो मुश्किल ही है बस लोग केवल यहाँ मजबूरी में रहते है, वर्तमान कि परवाह किये बिना भविष्य की आजादी को पाने में हर कोई लगा हुआ है....मै जिस कमरे में रहता था २ महीने होने के बाद पता लगा यहाँ तो २-४ समस्या नहीं, उससे भी ऊपर है, इसलिए कमरा भी खाली करके जाना था और हम लोग तो यहाँ बस ५ साल से रह रहे है घर दूर है, सामान तो इतने है की उसे ले जाने के लिए १०  दिन पहले से पूरी तैयारी करनी पड़ती है मुझे अब पास के ही एक दूसरे कमरे में आना था, सामान थोडा बहुत तो पहले ही पहुंचा दिया था और सामान में होता क्या है बस किताबों की छोटी पुस्तकालय है..जिसको आम आदमी कहते है...."अरे क्या पत्थर ढोते हुए चलते हो"; यह हर कोई कहता है चाहे वह ऑटो चालक हो या कोई टैक्सी वाला I
सामान ले जाने में मेरे साथ रहने वाले एक दोस्त ने थोड़ी बहुत मदद कर दिया,और मै किसी तरीके से इस बीमारी की हालत में अपने नए कमरे को पहुंचा I
 वहां मेरे एक मित्र और करीबी सहयोगी आये और उन्होंने मुझे रेलवे स्टेशन तक मेरे साथ चलने को कहा, वैसे वे अक्सर घर जाते हुए मुझे रेलवे स्टेशन तक छोड़ने की जिद कर लेते थे परन्तु उनको मै हमेशा मना कर देता था क्योंकि वे मेरे लिए हर तरीके से आदरणीय है....परन्तु यह संयोग था की मैं बीमार था और सच में मुझे इस बार किसी अपने के सहयोग की आवश्यकता थी तो मै उनको मना भी न कर पाया I 
 घर पहुंचा और यूँ कह लीजिये मै अपने अस्पताल पहुंचा, मेरे अम्मी और पिताजी दोनों लोगों को इलेक्ट्रो होमियो और होमियोपथी का अच्छा ज्ञान और अभ्यास है, पिताजी घर पर नहीं थे, मुझे अम्मी ने gelsemium ३० एक खुराक दिया और मेरा बुखार कम हो गया मैंने खाना भी उस दिन खाया परन्तु सुबह फिर वही पहले वाली स्थिति I
 अब तब तक पिताजी भी आ गए थे उन्होंने कहाँ आज से तुम ठीक हो जाओगे, परन्तु दो दिन तक मै ठीक नहीं हुआ क्योंकि दवा का सही चुनाव नहीं हो पाया तीसरे दिन उन्होंने मुझे २ गोली belladona दिया और बताया अब कुछ नहीं लेना है बिलकुल इस बार ठीक, इस बार बुखार कम हो गया परन्तु यह जाने वाली नहीं थी....शाम को उसी दिन cal . carb ३० दिया और पिताजी ने कहाँ ये belladona  का आधा-अधुरा काम पूरा कर देती है और हुआ भी यही २ घंटे के अन्दर ही बुखार गायब..
 घर पर मेरा लगभग पूरा वक्त बीमारी ठीक होने में ही लग गया, तो क्यों न जाते-जाते भगवान् राम की नगरी अयोध्या में घूम लिया जाये और वहां के कुछ स्थलों का दर्शन और विश्लेषण ही कर लिया जाये मेरा उद्देश्य वहां की प्राचीन इमारतों को अपने कैमरे में कैद करने का था I
अगले दिन मेरी शाम को फैजाबाद से ट्रेन थी जो की ८-१० किमी दूर है अयोध्या से I यह अच्छा मौका था मेरा अयोध्या जाने का........
मै सुबह ही अपने घर बस्ती जिले से फैजाबाद के लिए चल चूका था, अयोध्या पहुँच कर मुझे वहां अपने एक शिष्य का सहयोग लेना था मंदिरों में घूमने का I






 यह शिष्य अब १० वी कक्षा का छात्र है जो क़ि एक मंदिर में वहां के स्वामी जी के द्वारा चलाये जा रहे गुरुकुल में रहता है I  यह एक ऐसी जगह है जहाँ घर से सन्यास सा लेना होता है और पूजा पाठ तथा गाय क़ि सेवा करनी पड़ती है I
वहां मैंने देखा छोटे -छोटे बच्चे भी थे जो बहुत दूर-दूर से आकर यहाँ मंदिर में रहते है उनके माँ-पिता  वही ईश्वर है और स्वामी जी ही हैं उनके गुरु I
मुझे उस शिष्य ने मंदिर में विश्राम करने के लिए जगह दिया और बहुत सी ऐसी बातों को बताया जो मुझे नहीं पता था.....पूरा दिन उसके साथ मंदिरों में जाकर दर्शन किया और कुछ फोटो भी एकत्र किया I जब मैं छोटा था और इस नगरी में अपने अम्मी- पिताजी  और बहुत से गाँव वालों के साथ आया करता था तब अयोध्या बिलकुल अलग सा दिखता था आज १२ -१४  साल बाद इस अयोध्या क़ि सूरत बदली-बदली सी नजर आती है पता नहीं क्यों अब सरयू नदी का पानी भी सूना-सूना सा दिखता है और जल भी लगभग यमुना जी के जल की तरह बदलता हुआ दिखने लगा है, अभी नहीं लेकिन अगले १० सालों में और कितना बदल जायेगा पता नहीं, मंदिर तो अब पैसे का साधन बनता प्रतीत हो रहा है, पुरानी इमारतें तो अब दिखती ही नहीं, जो सीता जी की रसोई थी वह अब उसी की कॉपी कर नया मंदिर इसी के नाम का हो गया है.......मुझे पता नहीं क्यों अब ऐसा लगता है जिस तरीके से विज्ञानं प्रगति कर रहा है उसी तरीके से प्रकृति अपने आप में अवनति कर रहा है,  अगले दस बीस सालों बाद तो ये छोटी-छोटी धरोहरें, नगरी किसी कूड़े के ढेर में पड़े मिलेंगे, अगर ऐसा ही बदलाव होता रहा !

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