हमें अगर कोई सच्चा ज्ञान दे सकती है तो वह प्रकृति I जहाँ गुरु है वहीँ ज्ञान है, और ज्ञान तो परमात्मा के द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, परमात्मा तो परम और आत्मा के मेल को ही कह सकते है, और आत्मा का गुरु से सीधा सम्बन्ध होता है गुरु तो प्रकृति भी हो सकती है अगर हमें प्रकृति ही सब कुछ बता रही है और यह तो बिना बोले ही हमें सिखाना चाह रही है (अर्थात प्रकृति तो मूक है) तो फिर हमें ऐसे ज्ञान को ग्रहण करना चाहिए, यह तभी संभव है जब हम थोड़ा चिंतन करें I
बिना भेदभाव, बिना किसी पूर्वाग्रह के सबको समान रूप से बांटने का तरीका प्रकृति से सीखा जा सकता है। प्रकृति में विद्दमान हमारे गुरु कोई भी हो सकते है जैसे - पृथ्वी, वायु, आकाश (नभ), जल, अग्नि, समुद्र, सूर्य, चंद्रमा यानि की हर प्रकार की और बहुत से प्राकृतिक संसाधन भीI
इसलिए तो हम छोटी कक्षाओं में एक कविता पढ़ा करते थे जिसका शीर्षक होता था "सीख" इसकी रचना सोहनलाल द्विवेदी के द्वारा की गयी है-
पर्वत कहता शीश उठाकर,
तुम भी ऊँचे बन जाओ।
सागर कहता है लहराकर,
मन में गहराई लाओ।
समझ रहे हो क्या कहती हैं
उठ-उठ गिर-गिर तरल तरंग
भर लो भर लो अपने दिल में
मीठी-मीठी मृदुल उमंग!
पृथ्वी कहती धैर्य न छोड़ो
कितना ही हो सिर पर भार,
नभ कहता है फैलो इतना
ढक लो तुम सारा संसार!
और आगे इसी प्रकार कह सकते है -
प्राणवायु कहती रहो परे सदा आसक्ति, गुण-दोष से
चाहे जाओ किसी और स्थान,
नभ कहता है अखंड रहो सदा
चाहे फैलो तुम पूरा संसार!
अग्नि कहती तेजस्वी बनो
चाहे रहो पराजित इन्द्रियों से,
मधुमक्खी कहती श्रम करो इतना
भले फल/रस भोगे कोई और इंसान I
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