Monday 25 May 2020

मेरा इम्तिहान था बाकी मैं मेड़ पर चल रहा था

तस्वीर-गूगल साभार

मेरा इम्तिहान था बाकी मैं मेड़ पर चल रहा था
लबालब बारिश में भरे खेतों से मैं भी भीग रहा था
आसमान की ओर फिर पीछे मुड़कर देखा
रात का समय था मैं आशियाना ढूंढ रहा था
पोखरा, गड़हा, नदी सामने सब कुछ देख रहा था
मैं अब तक भीग रहा था मैं अब भी तैर रहा था
धान के बालियों से लग रहे थे सरपतों में लिपटी कुछ आभाएँ
साँपों की गूँथती मालाएं और चलने की बिखरती हुई आशाएं
उम्मीदों के सृजन में नभ की अदाएं और सुबह होने की भाषाएं
कोयल की कूंक और सरसराहटों में छूती नाजुक हवाएं
मैं सुन रहा था खांसते हुए हांफते हुए वो आ रहा था
बिना मेड़ पर चले वो दलदल में फंसे जा रहा था
वो देख रहा था इस बार बहुत दूर तक बचपन के था वो करीब
डिहरी से निकलकर अनाज बिकते थे और वो अब तक आ यहाँ रहा था
इस बार तो बीज के पैसों का कर्ज भी नहीं उतर रहा था
मैं सोच रहा था वो मासूम था और घर के मासूमों का क्या हो रहा था
दवाओं के बिना खेतों तक पहुंचना मतलब इस अनाज का एक सहारा था
इस बार हौसलों को कहीं तैर कर उसके नजदीक आना था
मगर वो मेड़ तक पहुंचकर देख रहा था अब भी उसी ओर
लबालब थे खेत और वो दलदल में फंस रहा था
हर कर्ज से निकलना चाह रहा था पर अब वो वहीं खड़े फंस रहा था
वो बढ़ रहा था आगे मगर बढ़ नहीं पा रहा था
अजीब सी दास्तान है वो खेत या मैदान थे
मगर उनके लिए वो पैसा और मकान थे
उसी से जिंदगी चलती और वहीं पर ही रुकनी थी
मैं मेड़ पर से बिना उतरे पीछे लौट गया था
उस चेहरे को देखता क्या जिसके कांपते गिड़गिड़ाते तन पर चिथड़े
और मन में उम्मीद अब बुझते जा रहे थे
वो असल में हारा नहीं था वो तो चल रहा था
मैं ही मुड़ गया था...
#प्रभात
Prabhat


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