बड़ी कशमकश सी है कि क्या लिखूं, कैसे शुरू करूं। लिखूँ
भी या न लिखूँ या किसी चीज को दफन हो जाने दूं।
इसलिए जो लिख रहा हूँ अब मैं वो अपने लिए। अपने आपके लिए
लिखूँ तो ही बेहतर है...
तो सुनो प्रभात तुम्हें मैं तुम से भी संबोधित कर सकता
हूँ और आप से भी। तुम्हें मैं दुत्कार भी सकता हूँ और तुम्हें मैं गले से लगा सकता
हूँ। तुम्हें मैं स्वीकार भी कर सकता हूँ तुम्हें मैं अस्वीकार। तुम्हें मैं लिख भी
सकता हूँ और तुम्हें बिना लिखे भी बता सकता हूँ। बात करके भी और खामोश रहकर भी। केवल
ये सब इसलिए क्योकि तुम मेरे अपने हो।
प्रभात नायिका रागिनी हो सकती है लेकिन नायिका के होने
से कभी कभार सारा ब्रह्मांड शून्य सा हो जाता है। सारी दुनिया से अलग हो सकते हो। इसलिए
एक तरफ नायिका तो अकेले ही है एक तरफ पूरी दुनिया जिसमें पशु, पक्षी, जमीन, पहाड़ और नदियां सब
कुछ हैं। इसलिए आज तुम्हें अपनी नायिका से अलग अपनी जमीन तैयार करनी होगी।
तुम्हें अपने नाम से ही केवल नहीं प्यार है बल्कि तुम्हें
तुम्हारे होने का प्रमाण तुमसे है। अपने आपके लिए बिताए समय के साथ खुद शब्दों के साथ
विचरण करना ही याद हो सकता है। तुम्हारा अकेले चलना और हवाओं और पहाड़ों का समीप होना
ही सब कुछ नहीं है। बल्कि यही जिंदगी का सच है कि खुद ही अकेले चलना। यानी इसमें ही
अपने लिये निःस्वार्थ से काम किया जा सकता है। खुद से लड़ा जा सकता है और खुद के लिये
जिया जा सकता है। इसलिए तुम ऐसे ही चलते रहो बेपरवाह तरंगों के साथ खुद को किसी वजह
से न रोको बल्कि वजह को खुद से रोक दो। संसार की कोई भी वजह तुम्हें विचलित करे उससे
पहले खुद से उसे विचलित करो। यहां चाहे नायिका के साथ उस भीड़ से भी अलग हो जाना पड़े
जिससे तुम्हें दिक्कत हो तो हो जाओ। भीड़ के साथ न चलो भीड़ तुम्हारे साथ स्वतः चले तो
समझो कामयाब हो...
-प्रभात
-जिंदगी का सचनामा
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