Tuesday, 1 May 2018

मजदूर दिवस विशेष

अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस की बधाई।
मजदूर, मेहनतकश अर्थात श्रमिक लोग अलग लोग हैं जो सबसे पहले ध्यान में आते हैं, लेकिन शब्द अपने आप में बहुत व्यापक है, लेकिन कुछ लोग न समझते हुए इसके अर्थ को अनर्थ बना देते हैं। वे सीधे इसे वर्ग और जाति में विभाजित करके मुँह बनाने लगते हैं। इस आधुनिक दुनिया में आधुनिक सोच रखने वाला इंसान वास्तव में आधुनिकता की परिभाषा को भ्रष्ट कर दिया है।

कोई भी पेशा हो, नौकरी हो उसमें जो भी मेहनत करता है सब श्रमिक ही होते हैं। किसान भी मजदूर होता है। मजदूर भी किसान होता है। कीटों में भी श्रमिक होते हैं मधुमखियों को ही देख लीजिए। फिर आप अपने आप को मजदूरों वाली कटेगरी से अलग क्यों रखते हैं इसलिए क्योंकि आप ऐसी में काम करते हैं पसीना आता है लेकिन सूख जाता है। वो जमाना गया जब आवाज बुलंद होते थे समाजवाद के नाम पर। गांधी जी के जमाने में भी मजदूर होते थे। तभी कहते हैं कि मजदूर वर्ग का बहुत साथ मिला।

मेरा कहने का तात्पर्य बस इतना है कि अगर आप अब भी इस वैश्वीकरण वाले माहौल में मजदूर वर्ग को अलग करके इस प्रकार ख्याल मन में लाते हैं कि मजदूर हैं तो मैं आपका यह भ्रम तोड़ना चाहता हूं । "मजदूर वह है जिसे काम का भुगतान मिलता है। श्रम करता है। दिहाड़ी के हिसाब से काम करता है। केले के पत्ते में खाना खाता है। उससे जबरन वसूली की जाती है। कम वेतन पर काम करवाया जाता है। गाली गलौच और कभी कभार मारपीट का शिकार भी होते हैं। पहले जिस तरह से इमारतों को बनाने के लिए मजदूर बुलाये जाते थे वही मजदूर हैं।वर्ग विभेद होता है" इनमें से सब कुछ होता है लेकिन स्वरूप बदल गया। आज हर नौकरी करने वाला मजदूर ही है। केवल कुछ राजाओं के जैसे जीने वाले भ्रष्ट लोगों को छोड़कर। इसमें भी हमने कई कॉटेगरीज बना लिए हैं बस। सीधे तौर पर यह कह सकते हैं सामाजिक सुधार के बाद अब भी सामाजिक सुधार नहीं हो पाया क्योंकि इसका भी स्वरूप बदल गया है।

सुधार अब तब होगा। जब मजदूर अपने आपको मानते हुए हर कोई श्रम करेगा। श्रम करेगा तो वह इंसान रहेगा नहीं तो बिना शर्म के मानसिक विकास ही नहीं होगा और हैवान ही रह जायेगा। हम सबको मांग इस चीज की करनी चाहिए कि सबसे पहले कार्यालयों में जो शोषण हो रहा है चाहे वह कर्मचारियों का हो या चाहे वह किसी भी पोस्ट पर मीडिया संस्थान का ही व्यक्ति क्यों न हो। नारी हो या पुरुष वर्ग। चाहे वह किसान हो चाहे वह ढाबों पर काम करने वाला व्यक्ति ही क्यों न हो। चाहे वह एसी में बैठने वाला शोधार्थी ही क्यों न हो, उसका मानसिक शोषण तो न हो। डिलीवरी बॉय हो या काल सेंटर में काम करने वाला व्यक्ति। इन सभी के लिए एक बैनर तले कुछ कॉमन मूल्य के साथ नियम निर्धारित किये जायें। वह मूल्य कचरा उठाने और शौचालय साफ करने वाले से लेकर वेतनभोगी हर व्यक्ति के लिये एक जैसे हों। वह यह कि
सभी को सबसे पहले इंसान समझा जाये। सभी को शिक्षा, खाने पीने का अधिकार इस तरह मिले कि हर कोई श्रम करे जैसा कि सबको जरूरत भी है चाहे वह घर में ही क्यों न करे।
श्रम करने के लिए चाहे वह प्राइवेट क्षेत्र हो या सरकारी सभी में एक मिनिमम वेतन निर्धारित हो उस उद्देश्य के साथ कि उसका शोषण पैसे के आधार पर न हो सके।
समय के आधार पर काम कराया जाए। अधिकतम आठ घण्टे ही काम का निर्धारण हो। लेकिन ऐसा क्षेत्र जहां वास्तव में मेहनत की जरूरत है वहां समय का निर्धारण उससे भी कम हो। ताकि शारीरिक  शोषण तो न ही हो।
आयु वर्ग के हिसाब से वेतन और समय निर्धारित हों। यानी ऐसा न हो कि कम आयु वाले का वेतन कम हो श्रम ज्यादे।
श्रम के साथ ही साथ कार्यालय खाने पीने का प्रबंध भी करें। या प्रबंध न हो तो उन्हें अधिक वेतन मिले।
यह मेरी व्यक्तिगत सोच है। मजदूर दिवस का मकसद जो भी रहा हो, लेकिन दिशा और दशा तब तय होंगी जब देश में इंसान का अवमूल्यन खत्म हो जाये।

लीजिये मेरी एक रचना भी पढ़ते जाइए।

#प्रभात "कृष्ण"

Photo: google

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