किसी पत्थर से मूर्ति बनाना तो केवल एक कला ही है, जिसको हर एक व्यक्ति उसी प्रकार से करता है जैसे किसी सुन्दर कागज पर लिखे गए सुन्दरता के लेख को दुबारा गढ़ कर किसी दीवार पर कलेंडर के रूप में परिभाषित करना। यदि उस पत्थर नामक शक्ति को इस संसार में बनाना पड़े तो यहाँ कला अपने आप में किसी प्रकृति का रूप ले लेती है और यह कहने में हम भलाई समझते है की वह तो वही भगवान् है जिन्हें हमने पत्थरों को गढ़कर परिभाषित किया, और यह स्वतः ही होता है, जब मैं हार जाता हूँ किसी कला से, तो मैं पत्थर ढूढना आरम्भ कर देता हूँ, और आप इसे कोई मर्म कहें या कोई शक्ति और अगर आप इसमें भी विश्वास नहीं करते तो आप केवल अपने मूढ़ता पर यकीं कर यह बात आत्मसात कर सकते है की वह पत्थर धरती माता के कोमल सतह से हमारे पैरों के द्वारा हमारी आँखों के सामने दिखता हुआ प्रतीत होता है।
जब लेखन शैली में कठिनता या यह हमारी दिव्य शक्ति यह बात मानने की ओर रूख करे, कि लेखक के बातों में मूढ़ता के साथ -साथ भटकाव है तो आप निश्चित रूप से यह समझ जाये कि वह अपने आपको बेवकूफ बना रहा है, क्योंकि आप जैसे विद्वान पाठक हमारे लेखन शैली पर यकीं कर हमारे द्वारा बनाये हुए पत्थरों के बनने की संकल्पना को मानने से दूर आप उस विचार तक पहुचने में रेल की जगह अपने पैरों का इस्तेमाल करने लग जायेंगे।
अभी इतनी रात को हम सुबह मान ले तो यह अच्छा होगा क्योंकि रात तो सोने वालों के लिए होती है और हम तो निशाचरों की भांति जग रहे है, खैर अब आप हमारे साथ एक ऐसी दुनिया में चलें जहाँ केवल और केवल आप होते है, अगर हम आपको ऐसी जगह ले चल पाने में सफल हो गए तो मैं समझ जाऊंगा मेरी मंजिल जो केवल अपनी है वह आपसे हमेशा सहयोग प्राप्त करती है।
कई बार एक साथ जब हजारों बल काम करते है तो हम केवल एक काम करते है वास्तव में यह बल कुल मिलकर 3-4 ही होती हुई प्रतीत होती है। यूँ तो हर काम की वजह, हर राग की वजह एक कारण होता है और हर एक राग का एक प्रभाव होता है, जिसे हम अपनी खुशियों में मशरूफ करने के लिए अपने एक अलग धुन का ताबड़तोड़ इस्तेमाल कर लेते हैं। हर बार एक परिस्थिति आ जाती है जब राग बंद से हो जाते है अर्थात सोच के दरवाजे बाद में खुलते है लेकिन उस समय हम कुछ कहने की स्थिति में नहीं होते, इसका मतलब यह नहीं हो सकता की हम किसी गलत जगह का इस्तेमाल कर अपनी कुर्सी/छवि को गिरा रहे है। जब मुझे यह लगता है तो मैं चुप सा हो जाता हूँ और अपनी गलतियों को अस्वीकार करते हुए भी स्वीकार लेता हूँ, यह महज एक संयोग होता है, जब मैं कुछ बटन का इस्तेमाल कर आधी अधूरी कल्पनाओं(जिसे मैनें पत्थर की संज्ञा दी है ) को आपके गले लगा रहा होता हूँ। मैं जब अपनी बातों को दिखने वाली सुन्दर मूरत की तरह नहीं रख पाता, तो यह मेरे विचारों के अधूरे स्वप्न नहीं होते, ये लेखन शैली के दोष नहीं होते और न ही ये आप की असक्षमता होती है, यह केवल एक बोध/अनुभव स्वरुप होता है जिसे केवल मैं ही अनुभव कर पाता हूँ, मैं ही इससे आनंद ले सकता हूँ और केवल यह मेरे लिए ही होती है, मै कितना भी चाह लूँ परन्तु आपके समक्ष गढ़ी हुई पत्थर की सुन्दर मूरत की तरह नहीं रख पाउँगा।
तभी तो मैं कभी-कभी एक उलझी सी पहेली को कुछ पंक्तियों में दुबारा उलझा देता हूँ-
तुम्हे बताने में सच्चाईयां बदल सी जाती हैं
तुम्हारे देखने से मेरी नजर झुक सी जाती है,
ख्याल आने पर एक पहेली बन सी जाती है,
न तो वह पहेली समझ आती है, न ही तुम,,,,,,,,,,,,
जल्द ही आपसे आगे मुलाकात किसी उचित उद्देश्य के साथ उचित समय में होगी, इसी आशा के साथ तब तक के लिए विदा!
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