भेदभाव, विभिन्नता से बिल्कुल अलग है और आज भी है चाहे वह भ्रष्टाचार के ही रूप
में हो !
भेदभाव तब होता है जब लोग पूर्वाग्रहों या रूढी-बद्ध धारणाओं के आधार पर व्यवहार करतें हैं . पूर्वाग्रह का मतलब यह है कि हम किसी चीज के बारे में उसे देखकर या उसे सुनकर या बिना सुने ही पहले से ही कोई राय बना लेते हैं और रूढी-बद्ध धारणा वह कहलाती है जब हम लोगों के किसी खास देश, धर्म, लिंग के होंने के कारण सभी लोगों को एक ही छवि में बाँध देतें है या उनके बारे में पक्की धारणा बना लेते हैं.
मेरे ही नहीं आपके जीवन में अक्सर यह किसी न किसी रूप में देखने को मिलता है आखिर आप इससे हुबहू परिचित ही है फिर भी आखिर क्यों ------????/
भेदभाव कोई नयी बात नहीं है यह वही है जो कई हजारों साल पहले से चली आ रही है आजादी मिलने के बाद थोडा इसमें कमी आयी क्यों ?? क्योंकि संविधान
के द्वारा इसे ख़त्म कर दिया गया, और संविधान के
द्वारा क्यों ख़त्म किया गया क्योंकि
यह भेदभाव सबसे बड़ी समस्या थी; आज़ादी कि लड़ाई केवल
एक धर्म से
नहीं जीती गयी थी यह भेदभाव से
दूर होकर लड़ी गयी थी
...क्यों यह संवीधान में रखी
गयी क्योंकि भेदभाव के भुक्तभोगियों में
भारतीय संविधान के पिता भी थे. आप समझ ही
गये होंगे यह कौन थे ..यह महार जाति में
जन्मे हुए थे.
खैर भेदभाव तो केवल निचले व्यक्ति से ही किया जाता है यह कहना गलत होगा भेदभाव निचले व्यक्ति के पूर्वाग्रह द्वारा भी होता है वह केवल मनुष्यों में ही नहीं जानवरों में भी मिलती है परन्तु इतना नहीं जितना पहले मनुष्यों में था, या है; पशुओं में तो अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए होता है पर यहाँ ढोंगी और पराक्रम दोनों के द्वारा होता है; यह पहले होता था -कि किसी गरीब स्त्री के अंगूठे ही काट दो , किसी दलित को गाँव में मत रहने दो या उसे पूजा ही मत करने दो, उसे केवल गंदे उठाने का काम ही करने दो , किसी को जान से मार दो ...क्या आप सोच रहे है ये कहानियां है जो इतिहास कि किताबों में लिखी मिलती है जी नहीं यह अब भी किसी न किसी रूप में हमारे सामने घटित होती हुई दिखती है.
एक बार की बात है मैंने अपने शहर बस्ती के पास से बस पकड़ा, मुझे फैजाबाद रेलवे स्टेशन जाना था (जहाँ से फिर मुझे दिल्ली के लिए ट्रेन पकड़ना था) थोड़ी दूर बस पहुंची थी तभी एक जवान लड़का मुंह में बीड़ी लिए उस बस में चढ़ा, वह लड़का मुश्किल से 25 वर्ष का रहा होगा, गंदे कपड़े पहने और फटे पैंट में था वह बस में चढ़ा ही था कि उसके तुरंत बाद एक शूट- बूट पहने एक पत्रकार साहेब भी चढ़े वह ४० वर्ष के ऊपर के आयु के थे और सफेद कपड़े पहने हुए थे, मैंने यहाँ पत्रकार इसलिए उन्हें कहा क्योंकि वह पत्रकार वाली सीट पर बैठे थे उनके साथ एक और कोई आदमी था जो थोडा उनसे जवान था, अभी पत्रकार महोदय उस पत्रकार वाली सीट पर बैठे ही नहीं थे कि आते ही उस २५ वर्ष के लड़के को झल्लाते हुए जोर से डांटा- क्युन्न्न बी ड़ी या पी या रहीए हो ओ ओ ,, फेक दो ....इतनी जोर से डांटा कि बेचारा वह लड़का वही बीड़ी मुंह से निकाल कर फ़ेंक दिया और चुपचाप रहा शायद उसने सोंचा कि क्या वह गलत था.........मै भी सोंच में पड़ गया और सोंचने लगा अच्छा ही किया आखिर धूम्रपान करना सार्वजनिक जगहों पर मना जो है, परन्तु मै इतना सब सोंच ही रहा था कि मेरी सोंच गलत होने को हो गयी, क्यों कि आगे का संवाद ही कुछ ऐसा था
वह लड़का थोडा दारु भी चढ़ा रखा था शायद क्योंकि वह गरीब था और काम ही कुछ इस तरह के थे कि बिना पीये काम ही नहीं चलता क्योंकि उनको साहस/बल जितना इससे मिलता है उतना इसी १५ रुपये के रोटी से कहा ------------उस लड़के ने पूरे बस को मंच बना दिया और उन सभी बस में बैठे लोगों को ही नहीं अपितु उन पत्रकार साहेब को भी सोचने पर मजबूर कर दिया कि वे जो किये अच्छा नहीं था आखिर ये बात कुछ नरमी से भी हो सकती थी - उस लड़के के कुछ मनोरंजक और बातों में दम होने का कुछ अंश मै नीचे लिख रहा हूँ जो बस में बैठे ६० यात्रियों को अपना विचार बदलने का सन्देश दे गया- [भाषा हिंदी खड़ी बोली और अवधी दोनों को मिलाकर है]
" बाबु यह भारत देश ही ऐसा है यहाँ तो अगर हम भी तुम्हारे तरह से एक सफ़ेद कपडा ब्रांडेड पहन लेते तो किसी कि हिम्मत तक नहीं होती ऐसे झल्लाकर बोलने कि यह गरीबी का ही तो फायदा उठा रहे है, अगर आप मेरा बीड़ी फेकवा सकते हो तो ओ बगलिया में जो भैया बईठे है उनके सुरती/तम्बाकू जो चबा रहे है वो फेंकवा दीजिये अरे अगर आप इतना ही कर सकते है तब तो आप प्रधानमंत्री होते, आप हम जैसे लोगों का शोषण तो कर सकते है लेकिन कहाँ आप और लोगों का जो आपके बराबर के है उनसे टक्कर लई पैबा...अरे हम अंग्रेजी नयी जनित लेकिन थड़े बहुत काम कै हमहूँ जानित है, अरे हम मायावती कै बड़ाई नै करत है लेकिन मायावती के पीछे जौन एक चमार हैं केतना डेरात थिन सारे साहेब लोग ,,हम चमार नहीं है लेकिन अब सूरत ऐसा बना लिया हूँ कि लग रहा हूँ कि चमार हूँ , .....इतना कह दे रहा हूँ कि इतना मत ज़लील करो हम गरीबों को कि .......ऐसी स्थिति अवे, आखिर उस ५० पैसे के बीड़ी में तुम्हारा ५ पैसा भी तो नहीं लगा था कितने मेहनत से एक बीड़ी पीने को मिलता है अब भूखा तो कर दिया ........."
वह पहले के दो लाईने बोला ही था कि उसको डराने लगा वह बूढा आदमी पत्रकार कि अभी आगे पुलिस से पिटवा दूंगा ,,,,परन्तु आगे कि लाईने उसको पिटवाने कि क्या उसको खुद को धक्का लगने वाली थी ".....अरे मैंने और आपने पर्जेंट, पास्ट, फ्यूचर , ही काल/टेंस पढ़ी है परन्तु हमरे लिए मरंत काल भी है ...........धन्य हो इतना मत ज़लील करो हमहू आदमी होई ..."
एक अन्य घटना मै बताता हूँ जो उन नियमों का उल्लंघन भी करते है जो इन गरीबों और चमारों / दलितों के आत्मसम्मान और इनकी मान-हानि के लिए बनाये गये है दलितों का मतलब दबाया गया कुचला गया है, होता है बात भी सही है कभी किसी ज़माने के लिए सही भी था परन्तु आज एक तरह ये समाज में ऊंचा स्थान भी पाने के लिए लड़ते है परन्तु कुछ दलित भाई जो यह नहीं जानते कि हमारे लिए बनाये गए नियमों/कानूनों का, हम हीं गलत तरीके से फयदा लेकर सर्वनाश करने में लगे हुए है आखिर ऐसी क्या बात है जो मै कहना चाहता हूँ , क्या वह सही है जो मै कह रहा हूँ ये तो आपको ज़रूर समझ में आ जायेगा....
हुआ यूँ कि हमारे यहाँ हरिजन पुरवा (गाँव का छोटा भाग) में कुछ हरिजन कुछ लोगों के बहकावे में आकर उनके स्वार्थ कि सिद्धि में (कुछ मिडल लोगों के वर्ग) लालच -वस इस चक्कर में हम जैसे आम लोगों के जीवन को इतना मुशीबत में डाल देते है कि कुछ लोग तो जिन्दगी भर घर से बेघर अर्थात जेल में रहने को मजबूर हो जाते है
और यही नहीं सिर्फ एक हरिजन-पुरवा के लोग है ऐसे बहुत सी जगह पर ऐसे कई गलत व फर्जी काम होते होंगे ... मै तो बस एक ऐसा उदाहरण आपको दे रहा हूँ
""एक बार कि बात है जब मै बहुत छोटा था करीब ८-१० साल का बालक! मेरे घर से, बगल के एक पडोसी से मामूली सी बात को लेकर रंजिश चल रही थी, और तभी पैसे की पहुँच और पडोसी लोगों के आतंक का इतना बुरा साया पड़ गया था कि मेरे परिवार में सिर्फ दादी जी, अम्मी, और मेरी बड़ी बहन और छोटा भाई ही बचे थे बाकि और अन्य परिवार के लोग मेरे दादा जी पुलिस और गुंडों से छुपकर बगल के चाचा के नए घेर में रहते थे और मेरे पिता जी तो २० किलोमीटर दूर एक नेता जी पुकारे जाने वाले जो कि हरिजन ही थे उनके घर पर रहते थे पिताजी तो पूरे ६ महीने के वनवास के बाद ही घर आये थे उन्ही दिनों मेरे पिता जी के दो अभिन्न सहयोगी राजवंत और चंद्रभान बिलकुल राम और लक्ष्मण की तरह से दोनों भाई जैसा रहा करते थे, ये दोनों मेरे से १० वर्ष बड़े थे मतलब कुल मिलाकर २० साल के ही थे इतना हमारे परिवार का सहयोग करते थे की आज भी उनका हम लोग गुणगान करते है......मेरे पडोसी ने यह सोचा ये सहयोगी अगर एक बार मार खा गये तो इनके घर पर इनका दर्शन होना दुर्लभ हो जायेगा, इसी में आनन- फानन में पडोसी ने हरिजन और गरीब होने का फायदा देखकर चंद्रभान को सड़क पर इतना मारा की वह सीने की मार खाने के बाद चलने लायक ही नहीं रह पाया था, इतने में मेरे पिता जी को यह बात पता लगी तो बहुत चिंतित हुए परन्तु इसका फायदा यह मिला की हरिजन सवर्ण जो कि इन्ही लोगों को मारने पीटने के लिए कानून है मेरे पिता जी के सहयोग से मारने में संलिप्त सभी लोगों को जेल की हवा खानी पड़ी चाहे वह ५-६ दिन के लिए ही रही हो, इससे उस हरिजन को केस में सफलता के लिए हजारों रुपयों के सहयोग भी मिले....यह इतना प्रभावी था की इसके बाद कोई किसी हरिजन को गाली तक नहीं दे सकता था...""
भगवान् भी क्या खेल खेलता है, आज यह चंद्रभान नाम का वीर मेरा बड़ा भाई करेंट लगने से इस संसार से सदा के लिए विदा हो गया !
जब ऐसे समय आते है तो लोग यह देखना भूल जाते है क्या सत्य है क्या असत्य अर्थात , क्या सही है क्या गलत...
"इन्ही सब को देखते हुए बदले की भावना से उस मूर्ख पडोसी ने हमें नीचा दिखानें के लिए दो अलग अलग कहानिया रचा............
""पहले कहानी के लिए मेरे पडोसी ने दुखराम नाम के एक अनपढ़ हरिजन को चुना आखिर पैसे का लालच क्या- क्या नहीं कराता चूंकि वह बहुत गरीब था शायद इसलिए !... उससे कभी हमारे घर से कभी हाल-चाल वाली बात भी नहीं हुई होंगी परन्तु वह हरिजन मेरे दादा जी और पिता जी के खिलाफ झूठा हरिजन- सवर्ण कराने को तैयार हो गया जिसमे केस दर्ज होने के बाद मेरे पिता जी और दादा जी को जेल होती और उस हरिजन का बस १० दिन की दाल ही चलती कहानी यह बनायीं गयी थी की मेरे बूढ़े दादा जी (जो कृषि अध्यापक थे) और पिता जी (जो पी-एच. डी. करने के बाद अब मेडिकल फील्ड में डोक्टर है) दोनों लोग गन्ने के खेत में कट्टा लेकर दुखराम को दौडाए थे और जान से मारने की कोशिश की थी......उन दिनों मुझे आज याद है यह झूठी खबर मिलते ही मेरे दादा जी खाना पीना छोड़ दिए की अब तो जेल जाना पड़ेगा, बताओ इस पर क्या नहीं हो सकता था ??परन्तु चूँकि यह केस मेरे पडोसी के बहकावे में आकर दुखराम ने किया था और मेरे पिताजी का दिमाग था की अलग अलग दिन उस दुखराम के घर जाकर हम लोगों के साथ कसेट में यह बात रिकॉर्ड कर लिया की वह अनपढ़ है और आपने कभी मारा-पीता नहीं है मैंने आपके पडोसी के कहने से यह केस किया...///इस पर और कुछ हरिजन गवाहों के मुकर जाने के बाद यह केस कोर्ट से रद्द कर दिया गया और तब जाकर इस हरिजन सवर्ण का गलत प्रयोग होने से बच मिला था""
अगली झूठी कहानी तब गढ़ी गयी जब पडोसी अपने कामों में असफल नजर आये , यह अभी नयी बात है जब मै बी.एस -सी. में दिल्ली था और मेरे कॉलेज के दिन थे और मेरा भाई ९ वी का छात्र था,,मेरी दीदी पी-एच. डी. के लिए प्रयासरत थी और मेरे दादा जी इसके २ साल पहले ही चल बसे थे
एक नया श्रीधर नाम का हरिजन जो दुसरे बगल के गाँव का है वह मेरे पडोसी के यहाँ किराये पर कमरा लेकर बैटरी का दुकान चलता है गरीब है परन्तु दारु के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है मेरे पडोसी ने इस नए व्यक्ति को झूठा हरिजन- सवर्ण करवाने के लिए पकड़ा.....और इस गलत काम में कुछ परेशानियों के चलते और कुछ गलत पहुँच के लोगों के चलते वह कुछ हद तक सफल हो गये (इस का जिक्र इस अंक में करना उचित नहीं है शायद अगले अंक में आप जरुर पढेंगे)....जिसका मुझे अब तक दुःख है , इसमें कहानी यह थी कि मेरे पिताजी उससे एक बैटरी लिए और उसका पैसा मांगने पर पिता जी, मेरी दीदी, भाई ने मारा-पीटा श्रीधर को; और इसका झूठा एक्सरे रिपोर्ट पहुँच के बल पर बनवा कर स्थानीय थाना के दरोगा जो एक हरिजन थे इसका पडोसी गलत फायदा उठाकर झूठा केस लिखवा दिया, जिसकी वजह से मेरे पिता जी जेल गए....परन्तु जेल से वापस आकर पिता जी ने इस केस में हुए झूठे कारनामों का खुलासा करवा दिया तब जाकर मेरे भाई व बहन को कारागार में होने से मुक्ति मिल सकी मुझे दुःख इस बात से
है कि वह हरिजन अपने फर्जी केस से मिलने वाले पैसे को पाने में सफल हो गया और जो
गलत लोग इसके पीछे थे वे अभी तक कुछ सीख नहीं ले पाए जिससे इनका मनोबल बढ़ा
जिससे किसी और के साथ ऐसा करने में ये कभी नहीं कतरायेंगे.””
यही वह छोटा गाँव के हरिजन जैसे लोग समझ
जाये कि पैसे ही नहीं सब कुछ है तो कोर्ट के ५० % से ज्यादा केस ऐसे ही निपट
जाये......
अभी आपको भेदभाव पर एक और
छोटी सी घटना बताता हूँ .......अब तो वैसे भी आप इतना तो पढने के विचार में
नहीं होंगे लेकिन आपको कुछ तो वास्तविकता का अहसास कराना उचित होगा .............
मैं पिछले १ महीने पहले
ग्वयेर हाल का मेस सेक्रेटरी था या हिंदी में आप कह सकते है खाद्य सचिव ...अपने
तीन महीने के कार्यकाल में मैंने बहुत कुछ सीखा ...,,,,,,है तो यह हॉस्टल, परन्तु
यहाँ भी कभी -कभी कुछ ऐसी दुर्लभ चीज़ें देखने या सुनने की मिलती है जो शायद किसी
अनपढ़ लोगों के समूह के बीच नहीं पाई जाती होगी ....एक दिन मध्याहन भोज का समय था
वही एक बज रहे थे, मेस कर्मचारियों के बीच किसी बात को लेकर झड़प चल रही
थी,,,, इसी बीच मुझे अच्छा नहीं लगा...इतनी तेज़ आवाज़ थी ...अन्दर एक रोटी बनाने
वाले, और एक कूपन काटने वाले की एक दूसरे को गाली दे रहे थे ,,,,मैंने पूछा आखिर आप लोग किस बात पर इतनी तेज़ चिल्ला
रहे है ,,आप तो मुझसे बहुत बड़े है उम्र की दृष्ट से ,,,यहाँ इतने बच्चे खाना खा
रहे है और उनमे से कुछ लोगों के अभिभावक भी साथ में पहली बार अपने बच्चों के साथ
हॉस्टल का आनंद ले रहे है ....पूछने पर रोटी बनाने वाले ने अपने उत्तर में कहा
....अरे मैंने इससे कहाँ की सामने नाई वाले की दूकान से जो लोग आते है ऐसे उनका
कूपन क्यों काट दिया ,आज के बाद कूपन नहीं काटना है ,,,,मैं चुप रह गया सोचा और
फिर पूछा अरे खाना घट गया इसलिए कूपन के लिए मना कर रहे है या और कोई बात है
"""""अरे नहीं साब मैंने कहाँ इतने अच्छी जगह नाई खाना
खाए और हम खिलाये शोभा थोड़ी न देता """"है नाई जाति के इनको
कूपन बोल दीजिये आज से ना काटने के लिए """
मैंने कूपन वाले से कहा इनका कूपन काटना
चाहिए और आगे से जो भी बात हो मुझे बताओ ऐसे लड़ना अच्छी बात नहीं है और रोटी बनाने
वाले मेस मनेज़र को जैसे ही यह बात कहा उनका कूपन काटने के लिए आप ऐसे मना नहीं
करेंगे तो उसने कहाँ ""गलत है"" मैंने कहा गलत तो आप है जो
ऐसी जगह जहाँ पी-एच. डी. करने वाले लोग रहते है पढने वाली जगह है यहीं पर भेद-भाव
का माहौल बना रहे है और आखिर आप भी रोटी बनाते हो...जाति अलग है तो क्या ??
भेदभाव और भ्रष्टाचार के मामले आज हर जगह
है लोग तंग आ गए है तभी तो लोग एक अन्ना के साथ सडको पर उतर आते
है, मैंने छोटे -छोटे कुछ ही उदाहरण प्रस्तुत किये है परन्तु ऐसे -ऐसे
उदाहरण है कि लोग बस देखते है और भूल जाते है.....सोचिये आखिर इनका हल कहाँ होता
है अगर हर ओर ही भ्रष्टाचार है कॉलेज और यही नहीं हर एक विभाग में भेदभाव है चाहे
वह कुछ लोगों का लिंग को लेकर ही क्यों न हो,''' अरे सोचिये आज़ादी के
पहले वह दिन ठीक था जब भेदभाव था और भ्रष्टाचार था और क्या अब जब
आज़ादी मिल गयी तो क्या इसको ख़तम नहीं होना चाहिए.....हम कहते है परिवर्तन होना
जरुरी है, अगर एक आदमी का मरने के बाद परिवर्तन हो जाता है तो क्या उसके मरने के
पहले नहीं हो सकता जैसा कि लोग मानते है आदमी मरने के बाद किसी और रूप में इस
संसार में जन्म लेता है '''.
जब लोग जगह परिवर्तन करते
है संविधान में परिवर्तन होता है, विकास हो सकता है गाँव का ....तो अपने आप का
बुद्धि विकास क्यों नहीं!!!!
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