Monday 4 March 2019

काश!


कुम्भ मेले में माइक लिए सरपट चला जा रहा था, अचानक फूल लिए एक महिला आवाज देती है। साब!
ऐसा लगा कि मानो उसकी पीड़ा को कोई सुनने वाला है। हकीकत जानने के लिए रुक कर 2 बार और सुना ...साब मेरी समस्या सुन लीजिए।

खैर, दूर तक वीरान और मैं उसे सुनने के लिए संगम के पास ही रुक गया। एक हाथ में फूल माला लिए (2-4 जो बेचने के बाद बचे थे) और दूसरे हाथ में फटी साड़ी को सीधी करती हुई कहने लगी।
मेरे पास सब कुछ है आप देख लीजिए। कोई नहीं सुन रहा। एक बच्चे का बलात्कार हो गया है, लेकिन कोई कुछ नहीं कर रहा। पुलिस वाले सुन नहीं रहे।
खैर सारा माजरा तो मुझे पहले ही समझ आ गया था। ये पुलिस वाले सही एफआईआर कहां दर्ज करते हैं। झूठा एफआईआर तो बिना पैसे के लिखवा लो लेकिन सच के लिए पैसा भी दो तो भी कुछ नहीं होगा।
मैंने पूछा एफआईआर है हां है । आखिर जिनके साथ ये हुआ वो कौन है?
महिला ने कहा , मेरी बेटी।
मैंने कहा फिर मैं कैसे हेल्प करूँ मेडिकल?
उसने कहा अभी फूल बेच रही हूँ यहां मेडिकल तक में सही आया लेकिन नहीं दिया पुलिस ने सारे कागजात छुपा लिए।

मैंने सोचा चल कर माजरा देखा जाए।
एक तम्बू और उसके बाहर 10 साल की बेटी खेल रही थी। उदास सा चेहरा और उसके पीछे गुमसुम 2 छोटे भाई मानो कह रहे थे कि यहां कुछ हो सकता है क्या! वे सुनने को बेताब थे मुझसे कुछ भले ही वह समझ नहीं सकते।
एफआईआर देखते ही कहानी आंखों के सामने इस तरह बनी कि सामने अगर वो होता तो हिंसा शायद कम ही बात होती।

क्रूरता की हदें पार करता समाज और उसकी मजबूरी।
बाप अंदर तम्बू से निकल कर आया मैंने कहा मेडिकल का कुछ कीजिये।बात कराइए अपने वकील से। वह पीछे मुड़कर देखा नहीं मुझे इग्नोर करते हुए बगल में अपने काम में मशगूल हो गया। उसे शायद किसी पर भरोसा नहीं रह गया था। वो कह रहा था कि कुछ हो नहीं सकता। यही देखती हैं जो करना हो करो मुझसे कोई मतलब नहीं।
और मां को तकनीकी जानकारी का पता ही नहीं ना तो मुझे नंबर निकाल कर दे सकती थी किसी का न ही कुछ। लेकिन फैसले कागजात पर होते हैं। और ऐसे समय ये कागजात कभी ऐसी मां के पूरे हो ही नहीं सकते।
महिला कहती रही कि आपने जैसा कहा वैसा करूँगी। मैं आपको वाट्सएप पर कागज भी भिजवा दूंगी। लेकिन कहां वो ऐसा कर सकेगी। बस 4-5 कागजों के साथ वो यही बोल रही थी कि पुलिस ने ऐसा किया और फिर वकील प्रधान ने सबने ....गन्ने का खेत और वो हादसा और फिर कि आपको कैसे बताऊं मैं सच बोल रही हूँ। गवाही भी दे दी बस मुझे वो जेल में चाहिए। लेकिन ....
मैंने कहा आप मां हैं मैं दर्द आपका समझ सकता हूँ।
काश कुछ ऐसे अधिकार, जरूरत की कुछ चीजें मेरे पास ऐसी होतीं कि मैं उस मां को तुरंत खुश कर पाता। मगर शर्मिंदा ही हूँ और ढूंढ रहा हूँ कई सवालों के जवाब न जानें कितनी मां अपने हक की लड़ाई नहीं लड़ पातीं। न जाने कितनी मां अपने बच्चों के साथ होते दंश को झेल ले जाती हैं। उन आंसुओं पर ही न जाने कितने हैवान लड़के अपनी खुशी का राग बनाते हैं.....

-प्रभात
(विडम्बना समाज की)

6 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन टीम की और मेरी ओर से आप सब को महाशिवरात्रि पर बधाइयाँ और हार्दिक शुभकामनाएँ |


    ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 04/03/2019 की बुलेटिन, " महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

    ReplyDelete
  2. बहुत कुछ कह गई आप की कहानी ,सच आये दिन ये अन्याय देखने को मिलते है पर हम मूक दर्शक बने देखने को मजबूर होते हैं ,क्योकि कानून सबूत मांगती हैं

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत शुक्रिया आपका

      Delete
  3. दारुण अशोभनीय।
    निस्तब्ध।

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया यहां तक पहुंचने के लिए

      Delete

अगर आपको मेरा यह लेख/रचना पसंद आया हो तो कृपया आप यहाँ टिप्पणी स्वरुप अपनी बात हम तक जरुर पहुंचाए. आपके पास कोई सुझाव हो तो उसका भी स्वागत है. आपका सदा आभारी रहूँगा!