Saturday, 12 July 2014

केवल चेहरा उतरा सा और गगन सूना सा होगा।


वो दिन भी क्या होगा
जब सूरज कहीं और होगा
सुबह न होगा, ना होगी शाम
केवल चेहरा उतरा सा और गगन सूना सा होगा

उन तारों का क्या होगा
जो झिलमला कर दिख जाते थे
न सतरंगी दुनिया होगी, ना होगा चाँद
बस यादों का एक गुलदस्ता और बिखरी सी बातें होंगी

चहचहाना चिड़ियों का कहाँ होगा
जब नीर धरा पर बदला सा होगा
न वे वन होंगे, ना उनकी सुन्दर लकड़ियाँ
बस सूखी घासें और उनके पुष्प गिरे से होंगे

उन घरों का क्या होगा
जहाँ सूरज कभी निकला रहा होगा
न वो हंसी होंगी, ना हंसनें का कारण
केवल पन्नों में लिखी बातें और उनका आत्ममंथन होगा

वो चेहरे कैसे बदले होंगे
जो कभी रोये और कभी हँसे होंगे
सैकड़ों आँखे तब नम होंगी
बस एक आईना होगा और उसमें "प्रभात" और उसकी ये कविता होगी
                                 -"प्रभात"

Wednesday, 9 July 2014

तो क्या है!

   वर्ष २०१२ के वसंत ऋतु में लिखी हुयी ये लाइनें यहाँ आपसे साझा कर रहा हूँ. कहते हैं हर एक चीज का समय होता है जो होता है वह बहुत सही और अपने समय पर ही होता है. किसी नें सही ही तो कहा है:-
 "मंजिलें उसी को मिलती हैं, जिसके सपनों में जान होती है
 परिंदों से कुछ नहीं होता मेरे यार, हौसलों में उड़ान होती है!!"

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मुझको तुम नहीं समझ पाये, तो क्या है!
मेरे इरादों को न समझ पाये, तो क्या है!

वक्त है ये जो कुछ कहने की जरुरत नहीं,
मंजिल मिलने की चाहत में, और भटकते नहीं
खुश होकर जी रहें कुछ पाने की जरुरत नहीं,
ऐसा मैंने सोचा है, तुम नहीं समझ पाये तो क्या है!

तुम्हे सोच कर, मेरे ख्वाब रुकते नहीं,
 तुम्हारे रिश्ते को पाने की, ये आश मिटते नहीं
प्रेम हो गया है इस मन में इस कदर,
तम्हारा प्यार अगर मिल न पाये, तो क्या है!

मुझे कहने को अब कुछ रहते नहीं,
तुम बताने की ख्वाहिश कुछ रखते नहीं,
ये बताना न बताना किस काम का,
अगर जिंदगी में तुम्हारे  कोई और है, तो क्या है!

फिक्र रहते हुए भी, तुमसे मिलता नहीं,
तुम्हे अच्छा लगते हुए भी मैं कुछ लगता नहीं,
ये बातें करने का शौक करूँ किस कदर,
कोई और हो, तुम न मिल पाये तो क्या है!
                     -"प्रभात"

Friday, 4 July 2014

पता न चल पाया अब तक राज।


पत्ते-पत्ते हिल रहे नहीं, मौसम वैसे ही बरकरार
आँखे पलकों से ढकी हुयी, कर रही बारिश का इन्तजार।

कि ढंकने को तो ढंक ले ये, चाँद तारो के साथ
 आवाज हुयी थी बादल की तब, जब हुयी थी पिछली बरसात।

आँधियों से मौसम का, हो रहा बुरा हाल
आज तपती गर्मी ने, किया कठिन मेरा कार्य।

फसलों के पकने के मौसम में, होता है आँधियों का वार
कभी आम की टहनियां, टूटती है सिलसिलेवार।

गीली धरती हो रही थी, जब नहीं था कुछ काम
धान की खेती सूखी थी, जब होती थी कुछ बौछार।

खरबूज पक कर फूट रहे थे, बालू में कभी साथ
कभी बाढ़ ने लुटा दिया था, सबको तरंगों के साथ।

आज तपा दी धरती को इसने, मिटने लगी है अब आस
कैसे मौसम चल रहा, पता चल पाया अब तक राज।
                                - "प्रभात"